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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
३०७ इसी तरह दयाराम, कबीर, मीरा, तुलसी आदि ने भी इसी भाव को प्रकारान्तर से व्यक्त किया है। ___ आनन्दघन रूप समता-विरहिणी चेतन रूप प्रियतम के बिना रातदिन विरह में झुलस रही है । प्रिय की प्रतीक्षा में विरहिणी की आंखों ने छोटेबड़े सबकी मर्यादा का अतिक्रमण कर दिया है और वे प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा में द्वार की ओर टकटकी लगाकर अनवरत देख रही हैं। एक क्षण के लिए भी वे द्वार से हटना नहीं चाहतीं
पिया बिन निस दिन झूरूं खरी री।
लहुड़ी बड़ी की कानि मिटाई, द्वार तै आंखें कब न टरी री।" विरहिणो की आंखें प्रिय को टकटकी लगाकर निरखने में लगी हुई हैं। सतत देखते रहने की तीव्र अभिलाषा उसकी कभी बुझती नहीं है। फिर भी, तृप्ति न मिल सकी। इसका कारण यह है कि परमात्मरूप प्रिय की मूर्ति अमृत-रस से परिपूर्ण है, संसार के किसी भी पदार्थ से उसकी उपमा (तुलना) नहीं दी जा सकती। उसकी दृष्टि में परम करुणामय शान्तसुधारस छलक रहा है। इस कारण उसे देखने पर नेत्रों को तृप्ति ही नहीं होती
अमी भरी मूरति रची रे, उपमा न घटे कोय ।
शान्त सुधारस झलीती रे, निरखत तृप्ति न होय ॥ इसी भाव को भक्तामर स्तोत्र में प्रस्तुत किया गया है कि 'शान्त-रस में रंगे हुए जिन परमाणुओं से आपका शरीर बना है, वे परमाणु जगत् में उतने ही थे। अतः तीनों भुवन में एक मात्र सुन्दर हे जिनवर ! आपके १. हूं सरखी बहु आपने, मारे तो एक आप ।
-दयाराम २. हमसे तुमको बहुत हैं, तुम से हमको नाहिं ।
-कबीर ३. तुम से हमकू कबरे मिलोगे हमसी लाख करोर ।
-मीरा ४. तुम्ह से तुम्हहि नाथ मोको, मोसो जन तुमको बहुतेरे ।
-तुलसीदास, गीतावली। ५. आनन्दधन प्रन्थावली, पद १६ । ६. आनन्दघन प्रन्थावली, विमलजिन स्तवन ।