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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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चमक रही है। इस प्रकार, रात्रि और कामदेव चेतनरूप स्वजन प्रियपति के अभाव में वेगपूर्वक धोखा देने को उद्यत हो रहे हैं। विरहिणो की रातें किस तरह बीतती हैं, प्रकृति उसके साथ कैसा व्यवहार करती है आदि का चित्रण भी प्रभावोत्पादक ढंग से किया गया है। इससे भी अधिक विरहिणी की विरह-दशा का मार्मिक चित्र निम्नांकित पंक्तियों में द्रष्टव्य
तन पंजर झूरइ पर्यो रे, उड़ि न सके जिउ हंस। विरहानल जाला जली प्यारे, पंख मूल निरवंश ।। उसास सासै बढाउ कौरे, वाद वदे निसि रांड ।
न मिटे उसासा मनी प्यारे, हटकै न रयणी मांड ॥' जीवात्मा-हंस शरीर-पिंजड़े में पड़ा-पड़ा झुलस रहा है, अत्यधिक कष्ट पा रहा है, क्षीण होता जा रहा है। पिंजरे में कैद होने से वह उड़ भी नहीं सकता। विरह रूप अग्नि की ज्वालाओं ने तो प्रचण्ड रूप धारण कर लिया है, इस कारण उसकी उड़ने की पांखे मूल से ही सर्वथा नष्ट हो गई हैं। अतः किसी तरह उड़कर भी वह प्रिय के समीप नहीं पहुँच सकता है। इतना ही नहीं, विरहिणी का त्रामोन्छ्वान बढ़ा हुआ है। ज्यों-ज्यों रात बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों श्वास-प्रश्वास की गति भी बढ़ती जाती है। मानों श्वास और रात में स्पर्धा हो रही है। विरहिणी श्वास को रोकने का प्रयास करती है, फिर भी श्वास की तीव्रता कम नहीं होती। और उधर लड़ाई ठाने हुए रात पीछे नहीं हटती है। प्रस्तुत पंक्तियों में विरहिणी की विरह-व्यथा की कल्पना अतिभव्य है। इसमें विरहिणी स्त्री की रात्रियों का हूबहू चित्र खींचा गया है ।
इसी तरह निम्नांकित पद में भी आनन्दघन रूप समता-विरहिणी को चेतन रूप प्रिय के विरह की व्यथा इस प्रकार हो रही है मानो कोई उसे भाला मार रहा हो। इसीलिए वह विरह से दुःखित होकर कह उठती है कि हे प्रिय ! कर्म-चण्डाल रूप यमराज के समान आप मेरा अन्त कहां तक लोगे? अब तो केवल एक जीव (प्राण) लेना शेष रहा है। यदि उसे भी लेने की तुम्हारी इच्छा हो तो ले लो
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २७ ।