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आनन्दधन का रहस्यवाद दर्शन की पिपासा जागृत नहीं हुई, अतएव अब तक मैं परमात्मा के दर्शन से विहीन ही रही। इस प्रकार, आनन्दधन की अन्तरात्मा अनन्तकाल तक
और योनियों में बिना परमात्मा के मुख-दर्शन के रही। इसी तथ्य को प्रस्तुत स्तवन में व्यक्त किया गया है। यहाँ कवि ने जैन दर्शन सम्मत जीव-योनियों का वर्गीकरण भी स्पष्ट कर दिया है। अन्यत्र भी आनन्दघन रूप समता-प्रिया की चेतन रूप प्रिय के दर्शन की उत्कण्ठा परिलक्षित होती है। अपनी अन्तर्व्यथा की उडेलते हुए वह प्रियतम से प्रेमपूर्ण शब्दों में निवेदन करती है कि हे मिष्ठभाषी ! मैं तेरी मीठी वाणी पर न्योछावर होती हूँ। तेरे बिना मेरा नहीं चल सकता। तेरे अभाव में अन्य समस्त स्वजन-परिजन अनिष्ट लगते हैं। इतना ही नहीं, तेरे मुख के दर्शन किए बिना जीव को चैन नहीं पड़ती है। प्रेम-प्याले को पी-पोकर ही प्रिय के वियोग के सब दिन बिताए हैं। फिर भी अभी तक तेरा आगमन नहीं हुआ है। अब मैं तेरे आगमन समाचार किससे पूर्छ, कहाँ तेरी खोज करूं और किसके साथ संदेश-पाती भेजूं ? इसलिए हे आनन्दधन प्रभु ! अब तो तेरी असंख्यात प्रदेश रूप सेज प्राप्त हो जाए तो मेरे समस्त विरह-दुःखों का अन्त आ जाए । २ . सुहम निगोदे न देखियो सखी०, बादर अति ही विसेस ॥ सखी० ।
पुढवी आऊ न लेखियो सखी०, तेऊ वाऊ न लेस ॥ स० ॥२॥ वनसपती अति घण दिहा सखी०, दीठो नहीं दीदार ॥ स० ॥ बिती चौरिंदी जल लीहा, सखी०, गति सन्नी पण धार ॥स०॥ ३ ॥ सुर तिरि निरय निवास मां, सखी०, मनुज अनारज साथ । अप्पजता प्रतिभास मां, सखी०, चतुर न चढियो हाथ ॥ स० ॥ ४ ॥ इम अनेक थल जाणिये सखी०, दरसण विन जिनदेव ।। आगम थी मति आणिए सखी०, कीजे निरमल सेव ॥ स० ॥ ५॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली चन्द्रप्रभ जिन स्तवन,। वारी हूं बोलडे मीठडै । तुझ वाजू मुझ ना सरै, सुरिजन, लागत और अनीठडे ॥ १ ॥ मेरे जीय कुं कल न परत है, बिन तेरे मुख दीठडे । प्रेम पीयाला पीवत पीवत, लालन सब दिन नीठडे ॥ २॥ पूर्वी कौन कहां धुं ढूंदू, किसकूँ भेजूं चीठडे । आनन्दधन प्रभु सेजडी पावू, भागे आन बसीठडे ॥ ३ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १८ ।