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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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शीतल पंखा, कुमकुम, चन्दन आदि वस्तुओं से विरह की आग और भी भड़कती है। शीतल पवन से विरह की अग्नि शान्त नहीं होती, अपितु वह तन-ताप को और बढ़ाती है। सामान्य अग्नि और विरहाग्नि में यही अन्तर है कि पहली शीतल पदार्थों से शान्त हो जाती है जबकि दूसरी शीतल पदार्थों से अधिक प्रज्ज्वलित हो उठतो है। ऐसो ही दशा में फाल्गुन माह आ गया। इस माह में चांचर गायक एक रात्रि को होली जलाकर आनन्द मनाते है, किन्तु समता-प्रिया क्या करे, उसका पति बाहर विभाव-दशा में घूम रहा है, अतः उसका विरह फूट पड़ा :
फागुन चाचरि इक निसा, होरी सिरगानी हो।
मेरे मन सब दिन जरै, तन खाक उड़ानी हो ।' चांचर गायक तो केवल एक ही दिन होली जलाते हैं किन्तु उसके (समताप्रिया के) मन में तो विरह की होली दिन-रात जल रही है और इससे उसका शरीर राख (खाक) होकर उड़ा जा रहा है।
इसी प्रकार निम्नांकित पद में भी विरहजनित व्यथा की कथा को बड़े मार्मिक ढंग से कहा गया है। इसमें आनन्दघन रूप समता विरहिणी की मनोव्यथा का सुन्दर चित्र खींचा है।
पिया बिन सुधि बुधि मूंदी हो।
विरह भुयंग निसा समै, मेरी से जड़ी खूदी हो । वस्तुतः प्रस्तुत पद 'पिया बिन सुधि बुधि मूंदी हो' और इसके पूर्व की 'पिया बिन सुध-बुधि भूली हो' पंक्तियों के भावों में बहुत कुछ साम्य है। प्रारम्भ की दोनों पंक्तियों का भाव लगभग समान ही प्रतीत होता है। वहाँ विरह रूप सर्प प्रिया के प्राण वायु को पी रहा है तो यहाँ रात के समय विरहरूप सर्प ने प्रिया की शैय्या को रौंद कर अस्त-व्यस्त कर दिया है। इसके अतिरिक्त उसमें फाल्गुन माह की चर्चा है तो यहाँ श्रावण-भादों की बात है। समता-प्रिया अपनी विरहावस्था का चित्रण इससे भी अधिक वेधक शब्दों में करती है :
भोयन पान कथा मिटी किसकू कहूं सधी हो।
आज काल घर आवन की, जीउ आस बिलूंधी हो ।' १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २६ । २. वही, पद ३२ ।