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आनन्दघन का भावात्मक रहस्यवाद
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उससे मिलन भी होगा, यह आशा हो प्रेमी का एक मात्र सहारा है। कबीर, मीरा और बनारसीदास की भांति आनन्दघन की आत्मा भी अपने प्रियतम के वियोग में व्याकुल दिखाई देती है । आनन्दघन ने समता-प्रिया के विरह व्यथित हृदय के मनोभावों का सुन्दर चित्रण किया है। यद्यपि उन्होंने मिलन, साक्षात्कार, आत्मसमर्पण आदि रहस्यवाद की विविध अवस्थाओं पर प्रकाश डाला है, तथापि विरह उनका प्रमुख तत्त्व रहा है। उनके अधिकांश पद विरह-वेदना से ही सम्बद्ध हैं। यही कारण है कि उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में विरह की विविध अवस्थाओं के अनुपम चित्र खींचे हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि आनन्दघन के भावात्मक रहस्यवाद में विरहतत्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐसा प्रतीत होता है कि विरह की अग्नि में ही वे कर्म, माया ममता आदि वैभाविक परिणतियों को भस्म कर आत्मोपलब्धि चाहते हैं।
विरह से साधक की आत्मा पूर्ण परिष्कृत हो जाती है। यही बात सूफी कवि उसमान ने इस प्रकार कही है कि “साधक विरहाग्नि में जलकर कुन्दन के समान जाज्वल्यमान हो उठता है, उसका शरीर पूर्णतः शुद्ध एवं निर्मल हो जाता है। यह विरह-तत्त्व रहस्यवादी साधना में अत्यधिक महत्त्व रखता है। आनन्दघन की विरह-व्यथा कबीर की अपेक्षा अधिक सरस, कोमल, भावमय, व्यापक और संवेदनात्मक है। विरह के द्वारा वेदना की तीव्रता ___ आनन्दघन को समता-प्रिया आध्यात्मिक विरह में इतनी लीन है कि अपने चेतन रूप प्रियतम के वियोग में शारीरिक-मानसिक सुध-बुध ही खो बैठती है। वस्तुतः विरह-साधना में लीन साधक की ऐसी दशा होना स्वाभाविक है। आनन्दघन रूपी समता-प्रिया की विरहावस्था में होने वाली असीम वेदना का चित्रण द्रष्टव्य है
पिया बिन सुध बुधि भूली हो ।
आंखि लगाइ दुःख महल के, झरोखे झूली हो ।। १. बिरह अगिनि जरि कुन्दन होई ।
निर्मल तन पावै प सोइ॥
-उसमान