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आनन्दघन का रहस्यवाद संसार में प्रेम-सम्बन्ध सभी करते हैं किन्तु यथार्थतः वह प्रेम-सम्बन्ध नहीं . है, क्योंकि संसार का यह प्रेम-सम्बन्ध उपाधियों से जुड़ा हुआ (कण्डीशनल) है। अतः क्षणिक है, नश्वर है। साथ ही, आत्म-गुण रूप सम्पदा को विनष्ट करने वाला है। इसीलिए आनन्दघन की दृष्टि में सच्चा प्रेम सम्बन्ध वही है, जिसमें निरुपाधिकता हो, जो स्वाश्रित हो, अनश्वर हो । जहां प्रेम सम्बन्ध औपाधिक (कण्डीशनल) होता है, वहां आत्म-प्रेम नहीं हो सकता। इस प्रकार, आनन्दधन की कृतियों में आत्म-ब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता का सम्यक् निरूपण हुआ है। वास्तव में उनका प्रेम बड़ा ही निर्मल और अनिर्वचनीय है। विरह का स्वरूप __विरह का अर्थ है वह एकाकीपन का भाव जिसमें जीव अपने मूल से 'वि' अर्थात् विशेष रूप से 'रह' -रहित होने के कारण तीव्र वेदना का अनुभव करता है।' आध्यात्मिक प्रेम में आध्यात्मिक विरह का प्राधान्य रहता है। विरह एक आन्तरिक वेदना है जिसको किसी बाह्य लक्षण से समझना सामान्यतया कठिन है। विरह के दो रूप हैं-एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक । लौकिक विरह को कदाचित् बाह्य लक्षणों के द्वारा समझा भी जा सकता है किन्तु आध्यात्मिक विरह को समझना अतीव दुष्कर है । विरह चाहे लौकिक हो या आध्यात्मिक, वह सर्वथा व्यक्तिगत अनुभव होता है। इस विरह ताप के वेदनात्मक स्वरूप की अत्यन्त विशद् व्यंजना आनन्दघन की वाणी में मुखरित हुई है। उन्होंने प्रकृति पशु-पक्षी आदि उद्दीपनों द्वारा विरहिणी आत्मा की व्यथा को बड़े ही मार्मिकता से व्यक्त किया है। जो वेदना, जो कोमलता, जो सरलता, जो गम्भीरता तथा जो अकृत्रिमता आनन्दघन के पदों में दृष्टिगत होती है, वह सम्भवतः कबीर और बनारसीदास के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है। काव्य की दृष्टि से आनन्दघन का विरह-वर्णन अनूठा है।
आनन्दघन के पदों को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि उनका हृदय कितना कोमल और 'प्रेम की पीर' से भरा था। उनके समस्त पदों में गूढ़ता और गम्भीरता विलक्षणरूप में दिखाई देती है। विरह आशा के अवलम्बन पर जीवित रहता है। जिससे आज विछोह है, वियोग है, कल
१. कबीर साहब, पृ० ३८१ ।