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आनन्दघन का साधनात्मक रहस्यवाद
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नहीं मानता । उसके अनुसार ज्ञान आत्मा ही है।' इसलिए वह आत्मा से अभिन्न है।
जैनाचार्यों ने ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया है-मिथ्याजान और सम्यग्ज्ञान । आत्मा क्या है, कर्म क्या है, बन्धन क्या है ? आदि आत्मअनात्म सम्बन्धी विषयों का यथार्थ बोध होना ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। यथार्थबोध सम्यग्ज्ञान है और अयथार्थबोध मिथ्याज्ञान । सन्त आनन्दघन के अनुसार आत्मा का ज्ञान, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है। निश्चय-दृष्टि से आत्म-स्वरूप का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। पं० दौलतराम ने भी कहा है कि "आप रूप को जान पनौ सो, सम्यग्ज्ञान कला"२ आचार्य हेमचन्द्र ने साधता के क्षेत्र में आत्म-ज्ञान के महत्त्व को स्वीकार किया है। यह सत्य है कि सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान आत्मज्ञान ही है। आत्मतत्त्व का परिज्ञान करने पर सभी का परिज्ञान हो जाता है। वस्तुतः सम्यग्ज्ञान आत्मा की वह शक्ति है जिसके अभाव में क्रिया अंधी है। ___ इस प्रकार, सम्यग्ज्ञान के प्राप्त होने पर साधक में से राग-द्वेष-मोहादि क्षीण हो जाते हैं, स्व-पर का भेद स्पष्ट हो जाता है और समता की किरणें मिथ्यात्व का अंधकार दूर कर देती हैं। फलतः केवल ज्ञान रूप सूर्य आलोकित हो जाता है। आनन्दघन ने सम्यक् ज्ञान की यथार्थदशा का वर्णन करते हुए कहा है :
मेरे घट ज्ञान भान भयो भोर । चेतन चकवा चेतना चकवी भागौ विरह को सोर ।।१।। फैली चिहुँ दिसि चतुर भाव रुचि, मिट्यो भरम तम जोर । आपकी चोरी आप ही जानत, ओरे कहत न चोर ॥२॥
१. जे आया से विन्नाया जे विन्नाया से आया ।
-आचारांग, १।५।५ । २. छहढाला, ४।६। ३. योगशास्त्र, ४।२। ४. जे एग जाणेइ से सव्व जाणेइ।
-आचारांग, ११३।४।
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