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आनन्दघन का रहस्यवाद सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करै,
तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥' जैनागमों में वर्णित श्रमणाचार के अनुरूप जो साधक सम्यक् चारित्र का पालन करता है, सम्यक् क्रिया-आचरण करता है उसी का चारित्र सम्यक चारित्र कहा गया है। यद्यपि आनन्दघन ने कहीं-कहीं आडम्बर यक्त कर्म-काण्डों को अनुपयुक्त माना है, फिर भी शुद्ध-क्रिया अर्थात् सम्यक-क्रिया. सम्यक्-आचरण का समर्थन किया है, क्योंकि यह शुद्ध-क्रिया' मोक्ष-प्राप्ति का परम साधन है। अतएव शुद्ध-क्रिया के सम्बन्ध में उनका निम्नांकित मन्तव्य है :
निज सरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम लहियेरे ।
जे किरिया करि चउगति साधै, ते न अध्यातम कहिये रे ॥२ जिस क्रिया से, जिस चारित्र से, जिस जीवन-चर्या से निज स्वरूप की प्राप्ति होती है, वही शुद्ध क्रिया है, वही आध्यात्मिक-नाधना है, किन्तु इसके विपरीत जिस क्रिया से, जिस आडम्बरयुक्त कर्म-काण्ड से चर्तुगति परिभ्रमण करना पड़े, वह आध्यात्मिक क्रिया अर्थात् सम्यक् चारित्र नहीं कहा जा सकता। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि शुद्ध क्रिया की आधार शिला शुद्ध श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। इसी तरह अन्यत्र भी आनन्दघन ने श्रमण जीवन के आचार धर्म के अन्तर्गत् द्रव्य और भाव से पांच समिति के स्वरूप पर भी सम्यक् प्रकाश डाला है ।
भक्ति-योग की साधना जैन-भक्ति का स्वरूप ___ रत्नत्रय की साधना-पद्धति के अतिरिक्त भक्तितत्त्व ने भी आनन्दघन. को सर्वाधिक प्रभावित किया है । भक्ति भी उनकी साधना का प्रमुख रूप है। साधना की प्रथम भूमिका में भक्ति का बहुत बड़ा उपयोग है । वस्तुतः
भक्ति योग एक विलक्षण तरह की साधनात्मक अवस्था है। प्रेम की अजस्र _धारा अन्तःकरण में से फूट निकलती है, उस प्रेम की अजस्र धारा को
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, अनन्त जिन स्तवन । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, श्रेयांस जिन स्तवन । ३. पांच समिति-ढालें, उद्धृत-आनन्दधन ग्रन्थावली, पृ० २४५ ।