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आनन्द वन का भावान्मक रहस्यवाद
अवधू ! अनुभव कलिका जागी, मति मेरी आतम सुमिरन लागी। अनुभव रस में रोग न सोगा, लोकवाद सब मेटा ॥ केवल अचल अनादि अबाधित, शिव शंकर का भेटा ॥ वरषा बूंद समुंद समानै, खबरि न पावै कोई।
आनन्दधन हुवै जोति समावै, अलख लखावै सोई॥' अनुभवरूपी कलि के विकसित हो जाने पर क्रुद्ध बुद्धि अनात्म भावों से हटकर आत्म स्मरण में लग जाती है। आत्म-अनुभव-रम में निमग्न साधक के लिए मानसिक एवं शारीरिक किसी भी प्रकार का शोक-सन्ताप नहीं रहता और न उसे निन्दा-स्तुति आदि लोकापवाद का भय रहता है। अनुभव रस में तो केवल वाधारहित, शाश्वत्, स्थिर आत्मा-परमात्मा का मिलन अर्थात् आत्म-साक्षात्कार रहता है। जिस प्रकार वर्षा की बूंद सागर से मिलकर समुद्ररूप हो जाती है उसी प्रकार अनुभव-रस का आस्वादन करने वाले आत्मानुभवी भी आनन्द राशि रूप ज्योति में समा जाते हैं अर्थात् परमात्म-स्वरूप हो जाते हैं। इसलिए वे स्वयं अलक्ष्य हो जाते हैं। किन्तु इस अलक्ष्य रहस्यमय तत्त्व पर विचार एवं लेखनी की गति नहीं होती, केवल अनुभूति ही इस अलक्ष्य तत्त्व का साक्षात्कार करने में समर्थ होती है। एक अन्य पद में आनन्दघन का कथन है कि आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन रूप अन्तर्योति प्रकट नहीं की जा सकती और सम्यग्दर्शन रूप आत्म-ज्योति के अभाव में घट में स्थित आत्मदेव के दर्शन नहीं हो सकते। अतः जो साधक आत्मानुभव के द्वारा सम्यग्दर्शन रूप आत्म-ज्योति को आलोकित कर हृदय में विराजित आत्म-मूर्ति (परमात्ममूर्ति) को देखता है, वही आनन्दपुंज परमात्म पद को प्राप्त करता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से कहा है कि आत्मा को जानने का एक मात्र उपाय अनुभव-ज्ञान है, क्योंकि वह अनुभवगम्य है।' समयसार को आत्मख्याति टीका में भी कहा है कि यह आत्मा अनुभव से ही जानने योग्य
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६० । २. आतम अनुभव बिन नहीं जाने, अन्तर ज्योति जगावै । घट अन्तर परखे सो ही मूरति, आनन्दघन पद पावै ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०३ । ३. वही, पद ६१ ।
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