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आनन्दधन का रहस्यवाद जो आत्म-साक्षात्कार में बाधक होते हैं। प्रिय-मिलन में बाधा डालनेवाली इस तीसरी अवस्था को विघ्न की अवस्था कहते हैं। जैन-दर्शन की भाषा यह विभाव-दशा या कर्मावरण की दशा है। आनन्दघन के अनुसार प्रियमिलन में अन्तराय भूत माया-ममता, मोहिनी तथा घाति कर्मरूपी पर्वत हैं । कबीर तथा अन्य साधकों ने मुख्यरूप से माया को प्रिय-मिलन में विघ्नावस्था के रूप में माना है। जब साधक पूर्णतया माया-ममता, मोहादि से युद्ध कर विजय प्राप्त कर लेता है तब मिलन की स्थिति आती है। इस स्थिति में आत्मा और परमात्मा का चेतन और चेतना (समता) का जो कि अनादि काल से बिछड़े हुए थे, मिलन हो जाता है। तदनन्तर रहस्यवाद की आत्म-समर्पण की अवस्था आती है और फिर रहस्यवाद की अन्तिम अवस्था तादात्म्य अथवा आत्म-साक्षात्कार की हो सकती है, जिसमें साधक का आत्मा स्वयं परमात्मा बन जाता है। इस अवस्था में आत्मा-परमात्मा का तथा चेतन और चेतना का द्वैत भाव समाप्त होकर दोनों में अद्वैत स्थापित हो जाता है। रहस्यवाद की इसी चरमावस्था को प्राप्त करना साधक का मुख्य लक्ष्य है।
सन्त आनन्दघन में रहस्यवाद की उपर्युक्त सभी अवस्थाएँ स्पष्ट रूप में पाई जाती हैं। अतः यहाँ उनका क्रमशः विशद् विवेचन करना समीचीन होगा। किन्तु इसके पूर्व रहस्यवाद की अवस्थाओं के सन्दर्भ में, इविलिन अन्डर हिल के अभिमतानुसार रहस्य-साधना और अनुभूति की जो अवस्थाएँ मानी गई हैं उनका भी नाम-निर्देश करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
अण्डरहिल के अनुसार रहस्यवादी साधना के विकास की प्रमुख अवस्थाएँ निम्नांकित हैं :
(१) आत्म-जागृति की अवस्था (अवेकनिंग आफ सेल्फ फार
ऐव्सोल्यूट),
(२) आत्म-परिष्करण की अवस्था (प्योरिफिकेशन आफ दि सेल्फ), (३) आत्म-बोध की अवस्था (इल्यूमिनेशन आफ दि सेल्फ), (४) आत्म-विघ्न की अवस्था (दि डार्क नाइट आफ दि सोल)। (५) तादात्म्य (मिलन) की अवस्था (यूनिटी आफ दि सोल)।