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आनन्दघन का रहस्यवाद
योग का ध्येय है-प्रत्यक्षानुभूति । आनन्दघन ने अन्यत्र भी अनेक पदों में भक्ति-योग पर सम्यक् प्रकाश डाला है ।
योग-साधना
योग एक आध्यात्मिक साधना है । महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग की साधना बहुचर्चित है । जैन - परम्परा में भी अध्यात्म साधना योग के रूप में प्रस्फुटित हुई है। इसका सुव्यवस्थित रूप हमें आचार्य हरिभद्र की कृतियों में देखने को मिलता है । उन्होंने योग-साधना क्रम को आठ योग दृष्टियों के रूप में विभक्त किया है । आनन्दघन ने भी सम्भव जिन स्तवन में 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग किया है । वे कहते हैं ।
दोष वलि दृष्टि खुलै भली, प्राप्ति प्रवचन वाक' ।
यहां उन्होंने सम्यक् योग- दृष्टि खुलने पर बल दिया है । योग को हम आध्यात्मिक विकास क्रम की भूमिका भी कह सकते हैं ।
योग-साधनापरक शब्दावली
सन्त आनन्दघन के साधनात्मक रहस्यवाद में रत्नत्रय एवं भक्तितत्त्व की साधना के साथ ही योग-साधना का भी समावेश हुआ है । उनकी रचनाओं में जिस प्रकार रत्नत्रय तथा भक्ति-योग की साधना का विवेचन उपलब्ध होता है, उसी प्रकार योग की साधनापरक शब्दावलो भी अनेक रूपों में प्राप्त होती है । कहीं उन्होंने सिद्धों-नाथों और तान्त्रिकों के योगपरक शब्द यथा - सुरति, निरति, अजपाजाप, अनाहदनाद, आनन्द, अमृत, गगन-मण्डल, ब्रह्मरन्ध्र, सहज, निरंजन, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि शब्द व्यवहृत किए हैं तो कहीं अष्टांग योग की चर्चा की है और कहीं-कहीं जैन-योगपरक साधना को भी अपनाया है, जिसमें योग की पूर्व भूमिका केरूप में उन्होंने अभय, अद्वेष और अखेद की चर्चा की है । साथ ही अवचंक-त्रय योग का भी उल्लेख किया है । वस्तुतः आनन्दघन के योगपरक शब्दों के प्रयोग में स्वानुभूति की गहरी चेतना है । उनकी योग-साधना में अष्टांग-योग, हठयोग, जैन-योग तथा कबीर आदि पूर्ववर्ती साधकों की योग-साधना पद्धति का समन्वित रूप परिलक्षित होता है । आनन्दघन वास्तव में, एक जागरूक साधक थे । इसीलिए पूर्ववर्ती एवं
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, सम्भव जिन स्तवन ।