________________
२५४
आनन्दधन का रहस्यवाद पर पूर्ण श्रद्धा करना ही सम्यग्दर्शन है और यही आत्म-शान्ति का प्रथम सोपान है। उक्त पंक्तियों में आनन्दघन ने यथार्थ श्रद्धा पर बल दिया है। उनका स्पष्ट कथन है कि साधक सर्वप्रथम जिस वस्तु का जैसा स्वरूप, स्वभाव या परिणाम है, उसे उसी रूप में माने। इस प्रकार की दृढ़ श्रद्धा, यथार्थ विश्वास, वीतराग-आप्त वचन पर पूर्ण आस्था रखने पर ही -::- - मिल सकती है। व्यावहारिक दृष्टि से 'जिन' की वाणी में, 'जिन' के उपदेश में जिसको दृढनिष्ठा है, शुद्ध श्रद्धा है, वही सम्यग्दर्शी है। ___ संक्षेप में जीवादि नौ तत्त्व एवं षड्द्रव्य का जो स्वरूप तीर्थंकरों ने बताया है, वे उसी रूप में यथार्थ हैं, इस प्रकार की तत्त्व-श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। आचारांग में भी सम्यग्दर्शन के श्रद्धापरक अर्थ का निर्देश मिलता है । उस श्रद्धा का आधार उसमें जिनों की आज्ञा है। उसमें कहा गया है
तमेव सच्चं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं ।' 'जो जिनों ने कहा है वही सच्चा है'। यह श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। प्रस्तुत सूत्र में 'जिनों ने जो कुछ कहा है, वही सत्य और निःसंक है'ऐसी श्रद्धा पर बल दिया गया है। उपर्युक्त समस्त उद्धरणों में सम्यग्दर्शन का मूल श्रद्धा बताया गया है। बिना श्रद्धा के साधक साधना में प्रविष्ट नहीं हो सकता। किन्तु श्रद्धा के दो रूप हैं-एक अन्ध श्रद्धा ओर दूसरी सम्यक् श्रद्धा, सश्रद्धा या शुद्ध श्रद्धा। गीता में श्रद्धा के तीन रूपों की चर्चा की गई है। वे हैं-सात्त्विकी, राजसी और तामसी श्रद्धा ।२ सन्त आनन्दघन ने भी अनन्तजिन स्तवन में सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में श्रद्धा के स्थान पर 'शुद्ध श्रद्धान' का प्रयोग किया है। श्रद्धा तो अन्ध भी हो सकती है, लेकिन शुद्ध-श्रद्धा या सम्यक् श्रद्धा के ज्ञान-चक्षु सदैव खुले रहते हैं। वैसे तो प्रत्येक श्रद्धा ज्ञानपूर्वक ही होती है। आचार्य समन्तभद्र ने भी श्रद्धा के स्थान पर 'सुश्रद्धा' शब्द प्रयुक्त किया है।
आचारांगसूत्र, ११५५ । २. भगवद्गीता, १७२। ३. सुश्रद्धा ममते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते ।
-स्तुतिविद्या, ११४ वां पद्य ।