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आनन्दघन का रहस्यवाद हैं। व्यवहार नय से ही इन तीनों को साधन के रूप में निर्दिष्ट किया गया है और इन तीनों के समन्वित रूप को प्रधानता दी गई है। सन्त आनन्दघन की साधना-पद्धति में भी उक्त तीनों उपायों का समन्वित रूप प्रस्फुटित हुआ है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-रत्नत्रय की साधना के अतिरिक्त उनके साधनात्मक रहस्यवाद में भक्ति-प्रेम-योग की साधना, जैन-योग, हठयोग आदि योग-साधना के भी दर्शन होते हैं। अतः उनके द्वारा अपनायी गई विविध साधना-पद्धति की चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे।