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आनन्दघन का रहस्यवाद
(१) जाग्रत्, (२) स्वप्न ( सुप्त), (३) सुषुप्त और ( ४ ) तुरीय ।' प्रकारान्तर से सन्त आनन्दघन ने भी उक्त चारों अवस्थाओं का वर्णन किया
है :
आवी ।
निद्रा सुपन जागर उजागरता, तुरीय अवस्था निद्रा सुपन दशा रिसाणी, जाणि न नाथ मनावी हो ॥ २ निद्रावस्था, स्वप्नावस्था, जाग्रतावस्था और उजागर ( तुरीय) इन अवस्थाओं में से परमात्मा को उजागर अर्थात् तुरीय- दशा प्राप्त हो गई। जैनदर्शन में उजागर से अभिप्राय केवल ज्ञान-दर्शनमय अवस्था है | आनन्दघन का कथन है कि परमात्मा में उजागर दशा प्राप्त होने से पूर्व की निद्रा तथा स्वप्न अवस्थाएँ समाप्त हो गई। ये कुपित होकर चली गईं किन्तु परमात्मा ने उन्हें कुपित होते हुए देखकर भी आश्रय नहीं दिया ।
वीतराग परमात्मा सदैव उजागर - दशा में रहते हैं जबकि संसार के समस्त जीवों में प्रारम्भ की तीन अवस्थायें रहती हैं जिनका अनुभव प्रतिदिन के व्यवहार में होता है । चूंकि, संसारी जीव कर्म-प्रकृतियों से आबद्ध है, अतः दर्शनावरणीय कर्म के उदय के कारण निद्रा, स्वप्न आदि दशा का अनुभव होता है | आनन्दघन ने उक्त पंक्तियों में 'निद्रा' शब्द का प्रयोग कर कर्मवाद के रहस्य को उद्घाटित किया है । यह उनकी अपनी विलक्षणता है । औपनिषदिक ग्रन्थों में 'निद्रा' शब्द के स्थान पर 'सुषुप्त' शब्द का प्रयोग हुआ है । दूसरी अवस्था स्वप्न-दशा है जिसमें जीव को अनेकविध स्वप्न आते हैं । स्वप्न-दशा अर्धनिद्रित और अर्धजाग्रत् अवस्था है जिसमें व्यक्ति का शरीर सोता है किन्तु मन जागता है और वह विविध कल्पनाओं की विविध अनुभूतियाँ करवाता है । निद्रा और स्वप्न इन दो अवस्थाओं के अतिरिक्त तीसरी जाग्रत अवस्था है । यह आत्म-चेतना की अवस्था है। जब जीव प्रयासपूर्वक ज्ञाता - द्रष्टा भाव में स्थित होता है तो अप्रमत्त या जाग्रत् कहा जाता है । यह तावस्था निद्रावस्था की बिल्कुल
१. तस्य चतस्त्रोऽवस्था जाग्रत् - नुप्त नुपुत तुरीयान्वर्थारव्याः एताश्च बहुधा व्यवतिष्ठन्ते ।
( तस्येति ) तस्य - अनन्तर प्रतिपादित चैतन्यतत्त्वस्येमाश्चतस्त्रोऽवस्थाः जाग्रत्सुप्तसुषुप्त तुरीयान्वर्थारव्याः । जाग्रदवस्था, सुप्तावस्था, सुषुप्ता - वस्था, तुरीयावस्था एताश्चान्वर्थाः ।
— द्वादशारनयचक्र, पृ २१८-२२० । प्रथम विभाग ।
२. आनन्दघन ग्रन्थावली, मल्लिजिन स्तवन ।