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आनन्दघन का रहस्यवाद
आत्मा चेतन को पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति और आत्मा के ज्ञान गुण को चन्द्रमा की चांदनी की तरह समझना चाहिए। किन्तु जिस तरह चन्द्रमा बादलों से ढक जाता है और उसका वास्तविक स्वरूप दिखलाई नहीं पड़ता, उसी प्रकार यह आत्मा कर्म-प्रकृतियों से आच्छादित है। ___यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि आत्मा स्वभावतः ज्ञान-दर्शनमय, शुद्ध और निर्विकार है तो फिर, अशुद्ध तत्त्व-कर्म के साथ वह लिप्त क्यों हुआ? आत्मा और कर्म का यह संयोग कब से है ? इन प्रश्नों के समाधान हेतु आनन्दधन जैनदर्शन सम्मत शास्त्रोक्त उदाहरण देकर आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध की पुष्टि करते हैं। वे कहते
कनकोपलवत पयडी पुरुष तणी रे, जोडि अनादि सुभाय ।
अन्य संजोगी जिहां लगि आतमा, संसारी कहे वाय ॥' जिस तरह स्वर्ण और मिट्टी खदान में अनादिकाल से मिश्रित रूप में पाए जाते हैं, उसी तरह प्रकृति (कर्म) और पुरुष (आत्मा) का भी सम्बन्ध अनादि काल से है। जब तक आत्मा कर्म-पुद्गलों के साथ सम्बद्ध है, तब तक वह संसारी कहलाता है। इसी सन्दर्भ में यह प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि आत्मा और कर्म दोनों में से कौन प्रथम है ? कम पहले था या आत्मा ? वस्तुतः आत्मा और कर्म में कौन पहले था और कौन बाद में -इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है। फिर भी, आनन्दघन ने अनेक शास्त्रोक्त उदाहरणों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आत्मा और कम दोनों ही अनादि हैं अर्थात् जड़ और चेतन दोनों की सत्ता अनादि है। दोनों में परस्पर बीजांकुरवत् आधार-आधेय सम्बन्ध
__ जैनदर्शन की यह विशेषता है कि उसमें प्रत्येक पदार्थ को आधार-आधेय के सम्बन्ध से (द्रव्य-गुण-पर्याय के माध्यम से ) प्रतिपादित किया गया है। जैसे बिना आधार के आधेय वस्तु टिक नहीं सकती, वैसे ही बिना आधेय के आधार भी नहीं होता। अर्थात् द्रव्य रूप आधार के बिना गुण-पर्यायरूप आधेय टिक नहीं सकता और गुण-पर्यायरूप आधेय के बिना आधाररूप द्रव्य नहीं हो सकता।
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभ जिन स्तवन ।