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आनन्दघन का रहस्यवाद आत्मा निज स्वरूप के गुणों के अनुभवरूपी रस से लबालब भरी हुई है। इसलिए इसमें राग-द्वषादि विभाव दशा के होने की कोई सम्भावना नहीं है। तात्पर्य यह कि आनन्दानुभव की स्थिति में आत्मा में किसी प्रकार का विक्षोभ-तनाव या राग-द्वष का भाव नहीं रहता। इस अचल, अबाधित आनन्ददायिनी परमानन्द-दशा को कोई विरला समदर्शी साधक या ज्ञानी जन ही पा सकता है। ___ यदि हम आनन्दघन के अनुसार मुक्ति के स्वरूप का विश्लेषण करें तो मुक्ति का अर्थ होगा आत्मा की आनन्दमय-दशा अर्थात् अनन्त आनन्द की प्राप्ति जिसे जैनदर्शन की शास्त्रीय भाषा में अव्याबाध सुख (अनन्तसुख) कहा गया है। इस अनन्त सुख को ही आनन्दघन ने 'आनन्दघन' की संज्ञा दी है। वस्तुतः आनन्द आत्मा का स्वभाव है, स्व लक्षण है और स्वरूप है। यद्यपि दर्शन-ज्ञान आदि भी आत्मा के स्वभाव लक्षण हैं, तथापि ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि दर्शन-ज्ञान आदि गुणों की अनुभूति साधक को न्यूनाधिक मात्रा में हर क्षण होती रहती है, किन्तु आध्यात्मिक आनन्द तो तभी प्राप्त हो सकता है जब राग-द्वेष, इच्छाआकांक्षा आदि समाप्त हो। वह तो पूर्ण वीतराग और निराकुल-दशा में ही सम्भव है। इसीलिए आनन्दघन ने यह बताना चाहा कि आत्मा का साध्य तत्त्वतः आनन्द की प्राप्ति ही है। वस्तुतः उनके द्वारा प्रयुक्त 'आनन्दघन' शब्द ही अपने आप में रहस्यमय है। इस रहस्य को जानना ही साधक का लक्ष्य है। जिसने इस रहस्य को जान लिया उसने अपने आप को जान लिया। वे स्वयं इस रहस्य को जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं। उनकी यह उत्सुकता पदों में सर्वत्र झलकती है। जब उन्हें इस अनन्त आनन्द की अनुभूति हो जाती है तब वे इसमें सराबोर होकर कह उठते हैं :
मेरे प्रान आनन्दघन, तान आनन्दघन । मात आनन्दधन, तात आनन्दधन ॥ गात आनन्दघन, जात आनन्दधन । राज आनन्दघन.काज आनन्दघन ॥ साज आनन्दघन, लाज आनन्दधन ।। आम आनन्दघन, गाभ आनन्दघन ।
नाभ आनन्दघन, लाभ आनन्दघन ।' १. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ७२ ।