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आनन्दघन का रहस्यवाद तीन अवस्थाएं बतलाई हैं और उनमें तीसरी परमात्म-अवस्था है। इसी परमात्म-दशा को प्राप्त करना ही साधक का लक्ष्य है। कहने का अभिप्राय यह है कि आनन्दघन के अनुसार आत्मा (बहिरात्मा) का परमात्मा की कोटि तक पहुंच जाना ही जीवन्मुक्ति या अर्हत् अवस्था है। जैनदर्शन की भांति अन्य दर्शनों में भी यह माना गया है कि भेदज्ञान हो जाने पर मनुष्य इसी जन्म में वीतराग-दशा (जीवन्मुक्ति) का अनुभव कर सकता है। तत्त्वतः परमात्म-अवस्था और मुक्ति में कोई भेद नहीं है । एक ही अवस्था के ये दो पर्यायवाची शब्द हैं । आनन्दघन एक अन्य पद में मुक्ति के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं :
केवल कमला अपछरा सुंदर, गान करै रसरंग भरीरी।
जीति निसाण बजाइ बिराजै, आनन्दधन सरवंग धरीरी ॥' आत्मा कर्म-शत्रुओं को जीत कर विजय दुंदुभि बजाता हुआ अपने शद्धस्वरूप में स्थित हो जाता है। निज-स्वरूप के प्रकट होने पर रसरंग से भरी हुई सुन्दर अप्सराओं की भांति केवल ज्ञान रूप लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है। अन्यत्र भी उन्होंने कहा है
लोक अलोक प्रकाशक छइयो, जणतां कारिज सीबूं ।
अंगोअंग भरि रमतां, आनन्दघन पद लीधु ॥ आत्मा राग-द्वेष, मोह-ममता आदि विभाव परिणतियों का त्याग करता है तब समता भाव में स्थित होता है । परिणामतः लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान रूप पुत्र-प्राप्ति का कार्य सिद्ध होता है और केवल ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा आनन्दपुंज रूप मोक्ष-पद को पा लेता है।
जैनदर्शन में विदेह-मुक्ति अर्थात् सिद्धावस्था से अभिप्राय है-आत्मा का अष्ट कर्मो से रहित हो जाना। आनन्दघन ने भी जैनदर्शन सम्मत. विदेहमुक्ति (सिद्धात्मा) के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है :
लोक अलोक बिचि आप विराजत, ग्यान प्रकाश अकेला ।
बाजि छांडि तहां चढ़ि बैठे, जहां सिन्धु का मेला ॥ १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५३ । २. वही, पद ७१। ३. वही, पद ५५।