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आनन्दधन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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आनन्दघन की दृष्टि में प्राण, शरीर, माता-पिता, जाति, राज्य आदि सब कुछ आनन्द ही है। उपाध्याय यशोविजय ने भी आनन्दवन के अन्तरंग व्यक्तित्व को अति निकट से देखा था। इसीलिए उन्होंने आनन्दघन की आनन्दमय-दशा का सुन्दर चित्रण अष्टपदी में किया है।'
हम देखते हैं कि आनन्दधन अनेक पदों एवं स्तवनों में भक्ति की भाषा में परमात्मा से आनन्दघन रूप मोक्ष-पद-प्राप्ति की याचना करते हैं। यथा
एक अरज सेवक तणारे, अवधारो जिनदेव ।।
कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दघन पद सेव ॥२ वस्तुतः आनन्दघन ने अपने साध्य के स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी स्पष्ट चित्र नहीं खींचा है। रहस्यदर्शी साधक के लिए यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि वह तो परम सत्ता (परमतत्त्व) में विश्वास करता है जो अज्ञात है । वह उस अज्ञात परम सत्ता से साक्षात्कार करना चाहता है और उससे तादात्म्य-सम्बन्ध स्थापित कर एक रूप होना चाहता है । रहस्यवादी -दर्शन में जो परमसत्ता या परमतत्त्व इन्द्रियातीत है, अज्ञात है, अगम्य है, उस परम सत्ता से तादात्म्य-संबन्ध स्थापित कर लेना ही साधक का साध्य है। ऐसी परम सत्ता को दार्शनिकों ने परमतत्त्व, परब्रह्म, परम सत्य, निरंजन, परम-शक्ति, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, वीतराग-दशा, आनन्द, अव्याबाध सुख, अनन्त सुख आदि विभिन्न नामों से व्यवहृत किया है।
एक अन्य दृष्टिकोण से आत्मा का साध्य (वीतराग दशा) है। वस्तुतः जैनदर्शन में परमात्मा कोई पृथक् सत्ता न होकर आत्मा का अपना निजस्वरूप प्रकट करना ही मोक्ष, मुक्ति या वीतरागता है । जैनदर्शन में अर्हतअवस्था और सिद्धावस्था को साध्य माना गया है जिसे अन्य दर्शनों में क्रमशः जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति कहा गया है। आनन्दघन के दर्शन में भी उक्त दोनों प्रकार की मुक्ति का स्वरूप परिलक्षित होता है। उनके अनुसार जीवन्मुक्ति परमात्म-अवस्था है जो कि ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, पवित्र, समस्त उपाधियों से मुक्त तथा अतीन्द्रिय है। उन्होंने आत्मा की १. अष्टपदी-उपाध्याय यशोविजय, पद १-२,
उद्धृत-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ११ । २. आनन्दधन ग्रन्थावली, विमल जिन स्तवन ।