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आनन्दवन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार अब प्रश्न यह है कि कर्म क्या है ? जैनदर्शन में राग-द्वेपात्मक आत्मा के परिणामों को भावकर्म तथा कार्मण जाति के पुद्गल-विशेष, जो कषाय के निमित्त से आत्मा के साथ चिपके होते हैं, उन्हें द्रव्य-कर्म कहा है। कर्मग्रंथ में 'कर्म' की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-'जीव की क्रिया का जो हेतु है वह कम है। पं० सुखलालजी के अनुसार 'मिथ्यात्व, अविरति आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वह कम कहलाता है।'२ कम का उपर्युक्त लक्षण द्रव्य-कम और भाव-कम दोनों पर घटित होता है। संत आनन्दघन के अभिमतानुसार 'कर्म' की परिभाषा निम्नांकित रूप में दी जा सकती है-कम जे जीवे करिए रेजीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कम है।
वैसे 'कर्म' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, किन्तु जैनदर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया के अर्थ में अधिक प्रचलित है। क्रिया भी तीन तरह की मानी गई है '-मानसिक. वाचिक और कायिक । तत्त्वार्थसूत्र में इन तीन प्रकार की क्रियाओं के व्यापार को ही योग कहा गया है। कषाय-वृत्ति से युक्त जब इन तीन में कोई क्रिया घटित होती है तभी कर्म-वन्ध होता है।
जैन-परम्परा में कर्म से अभिप्राय सामान्यतः उस अशुद्ध विजातीय जड़ तत्त्व से है जो आत्मा की अनन्त शक्ति पर आवरण डाले हुए है, उसके मूल स्वरूप को आवृत किए हुए है। यद्यपि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा पर किसी भी विजातीय शक्ति का प्रभाव नहीं है, वह अनन्त ज्ञानादि चतुष्ट्य गुणों से युक्त है; फिर भी व्यवहार नय की दृष्टि से उसका स्वरूप उसी प्रकार आच्छादित है जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को आच्छादित करते हैं । इस सन्बन्ध में आनन्दघन की पंक्तियां द्रष्टव्य हैं :
पूरण शशि सम चेतन जाणिए, चन्द्रातप सम नाण ।
बादल भर जिम दल थिति आणिए, प्रकृति अणावृत जाण ।। १. कीरइ जिएण हेउहि, जेणंतो भण्णए कम्मं ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा १। २. दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलालजी, पृ० २२५ । ३. आनन्दधन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन । ४. कायवाङमनः कर्म योगः।
-तत्त्वार्थ, ६।१ ५. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ४१ ।