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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आवार २३१ बन्धन का कारण आस्रव है और मुक्ति का कारण संवर। कारण के उपस्थित होने पर ही आत्मा कर्मों का बन्ध करता है और कम-बन्ध के कारणों का परित्याग करने पर ही वह मुक्त होता है। आस्रव कम बन्ध का कारण होने से हेय-छोड़ने योग्य है और संवर मोक्ष का कारण होने से उपादेय है। सर्वदर्शनसंग्रह में आस्रव को संसार का हेतु तथा संवर को मोक्ष का कारण बताया गया है। अन्य सब बातें उसी की प्रपंचभूतविस्तार रूप मानी गई हैं।'
वौद्धदर्शन में भी 'आस्रव' शब्द का प्रयोग संसार के कारण के रूप में मिलता है । इस प्रकार, जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं में बन्धन तथा संसार का कारण आस्रव माना गया है। सन्त आनन्दघन ने भी बन्धन के कारण के रूप में मुख्यतः आस्रव का ही निर्देश किया है। __ सरल शब्दों में आस्रव का अर्थ है-जीव रूपी (आत्मा रूपी) तालाब में कम रूप जल का आना अर्थात् आत्मा में कम पुद्गलों का प्रवेश करना आस्रव है। तत्त्वार्थसूत्र में आस्रव की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि मानसिक, वाचिक और कायिक शुभाशुभ क्रिया-प्रवृत्ति योग कहलाती है और वही आस्रव है । इसके दो भेद हैं-भावास्रव और द्रव्यास्रव । बृहद्रव्य संग्रह में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को भावास्रव के भेद कहा है और ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के योग्य कर्मपुद्गलों के आगमन को द्रव्यास्रव कहा है।
वस्तुतः आत्मा के भीतर कम आने का मुख्य स्रोत आस्रव है। जैनशास्त्रों में आस्रव के बन्ध-हेतुओं की संख्या ४,५ और २ रूपों में मिलती
१. आस्रवोभव हेतुः स्यात्संवरो मोक्ष कारणम् । इतीयमहिती सृष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥
-सर्वदर्शनसंग्रह, आर्हत दर्शन । २.. कायवाङ्मनः कर्मयोगः । स आस्रवः ।
-तत्त्वार्थसूत्र, ६।१-२॥ ३. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा २९ । ४. वही, गाथा ३०-३१ ।