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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २३७ सुख या अनन्त सुख को ही जानना चाहिए।' अब यहाँ सहज जिज्ञासा होती है कि वह पूर्ण सुख या अनन्त सुख क्या है ? जिसे जैनदर्शन में त्रिकालाबाधित अक्षय सुख, अनन्त सुख या आध्यात्मिक आनन्द कहा गया है।
अध्यात्मवादी भारतीय दार्शनिकों के समक्ष चार मूलभूत प्रश्न रहे हैं(१) आत्मा क्या है ?
आत्मा का स्वरूप (३) आत्मा का साध्य क्या है ? और (४) उस साध्य को प्राप्त करने का उपाय क्या है ?
आत्मा का साध्य क्या है ? इस प्रश्न पर जैन दार्शनिकों ने ही नहीं, प्रत्युत चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दार्शनिकों ने गहरा चिन्तन किया है। आत्मा के साध्य-विषयक मुक्ति की अवधारणा लगभग सभी दर्शनों में समान रूप से पाई जाती है । सामान्यतया जैनधर्म में आत्मा का साध्यमुक्ति, मोक्ष या वीतराग-दशा है। जैनेतर दर्शनों में भी मोक्ष को आत्मा का साध्य माना गया है। यद्यपि आनन्दघन के रहस्यवादी दर्शन में भी कहीं-कहीं मुक्ति अथवा मोक्ष शब्द का प्रयोग दृष्टिगत होता है, तथापि उन्होंने मुक्ति अथवा मोक्ष शब्द के स्थान पर आनन्दघन' शब्द का प्रयोग ही अधिकांशतः किया है। न केवल आनन्दघन ने, अपितु प्रत्येक अध्यात्मवादी भारतीय दार्शनिक ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि साधक के जीवन का एकमात्र लक्ष्य या साध्य आनन्द है। इसीलिए उपनिषदों में आत्मा की जो पाँच अवस्थाएँ वतायी गयी हैं, उनमें अन्तिम अवस्था आनन्दमय कोष है। दूसरी ओर, वेदान्त दर्शन में आत्मा को सच्चिदानन्दमय कहा गया है। इस सम्बन्ध में उपाध्याय अमर मुनि जी का कथन है-“भारतीय दर्शन का आदर्श आत्मा के सम्बन्ध में सच्चिदानन्द रहा है । जहाँ सत् अर्थात् सत्ता, चित् अर्थात् ज्ञान और आनन्द अर्थात् सुख तीनों की स्थिति चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी अवस्था को यहाँ परमात्म भाव कहा गया है। उसकी प्राप्ति के बाद अन्य कुछ प्राप्तव्य नही १. यो वै भूमा तत्सुखं नात्ये सुखमस्ति । भूमैव सुखं भूमा त्वेवविजिज्ञासितव्य इति ॥
-छान्दोग्य उपनिषद्, ७।२३।१ ।