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आनन्दघन का रहस्यवाद
दुक्खाणि'' अर्थात् दुःखों का मूल मोह है । आनन्दघन का भी कथन है कि मोह के क्रोध और मान दो पुत्र हैं और ये दोनों ही संसारी जीवों को अप्रिय लगते हैं, एतदर्थ तिरस्कृत होते हैं । इस मोह को माया नामक पुत्री भी है जिसका विवाह लोभ के साथ हुआ है । इस प्रकार, मोहिनी ( मोहनीय कर्म ) का परिवार चारों ओर व्याप्त है ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राग, द्वेष और मोह मानसिक विकार माने गए हैं । अतः यह सत्य है कि कोई भी मानसिक विकार होगा तो वह या तो राग (आसक्ति) रूप होगा या द्वेष रूप । अतएव आनन्दघन ने भी संसार के बन्धन का कारण राग और द्वेष बताया है :
राग दोस जग बन्ध करत है, इनको नास करेंगे । मर्यो ते प्राणी, सो हम काज हरेंगे ॥
राग और द्वेष ये दोनों ही संसार का बन्धन करनेवाले हैं, एतदर्थं ये संसार के बन्धन के कारण कहे गए हैं। राग-द्वेष के कारण ही अनन्तकाल से प्राणी जन्म-मरण कर रहा है, किन्तु आनन्दघन यह चुनौती देते हैं कि अब मैं इन राग-द्वेष रूप बन्ध-हेतुओं को नष्ट करके रहूँगा । वास्तव में, राग-द्वेष रूप द्वन्द्व ही समग्र अनर्थों का मूल है । इसीलिए जैनागमों में राग और द्वेष को दोष कहा गया है । आनन्दघन ने भी मल्लिजिन स्तवन में १८ दोषों की चर्चा करते हुए राग-द्वेषादि दोषों का निर्देश किया है : " राग द्वेष अविरतिनी परिणति, ए चरण मोहनां जोधा । ४ राग, द्वेष और अविरति ये तीनों दोष चारित्र मोहनीय कर्म के सुभट हैं । एक स्थान पर उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से कहा है कि राग-द्वेष और मोह के कारण ही जीव को चतुर्गति रूप संसार-चक्र में परिभ्रमण करना पड़ता है ।
१. इसिभासियाई, २१६ ॥
२. क्रोध मान बेटा भए, देत चपेटा लोक |
५.
लोभ जमाइ माया सुता, एह बढ्यो परमोक || -आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३९ ।
३. वही, पद १०० ।
४.
आनन्दघन ग्रन्थावली, मल्लिजिन स्तवन ।
राग दोस मोह के पासे, आप बनाये हितधर । जैसा दाव पर पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥ — आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५६ ।