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आनन्दघन का रहस्यवाद
उदय ___ जो कर्म आत्मा के साथ बंध गये हैं, वे कर्म जब अपना फल दिखाना शुरू कर देते हैं, तो उस अवस्था को उदय कहा जाता है। उदीरणा ___ समय मर्यादा के पूर्ण होने के पहले ही कर्म के फल को भोग लेना उदीरणा है। दूसरे शब्दों में, नियत-काल के पूर्व ही किसी विशेष प्रयास के कर्मफलों को उदय की अवस्था में लाकर भोग लेना उदीरणा है।
सत्ता
___ समय की मर्यादा परिपक्व न हो, तब तक कर्मों की आत्मा के साथ लगे रहने की अवस्था सत्ता कही जाती है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि आनन्दघन ने बन्ध के चार भेद, प्रकृतिबन्ध के मूल-उत्तर भेद, उनमें भी घाति-अघाति कम तथा कम की अवस्थाएँ आदि कम-मीमांसा का सुंदर चित्रण किया है। बन्धन का कारण
कर्म ही बन्ध-रूप बनकर शुभाशुभ फल चखाते हैं। जब तक आत्मा का विजातीय द्रव्य-कर्मों के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। किन्तु प्रश्न यह है कि बन्धन का कारण क्या है? कर्म किन कारणों से बँधते हैं और किन कारणों से छूटते हैं ? कोई भी कर्म (कार्य) बिना कारण के कभी भी नहीं होता। कर्म-बन्धन रूप कार्य भी किन्हीं कारणों से होता है और कर्म-मोक्ष रूप कार्य भी किन्हीं कारणों से होता है। दशवैकालिक नियुक्ति भाष्य में कहा गया है कि आत्मा का बन्धन मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है।' आनन्दघन ने भी बन्धन एवं मुक्ति के कारण की चर्चा करते हुए कहा है :
कारण जोगे बांधे बंधनै, कारण मुगति मुकाय । आस्रव संवर नाम अनुक्रमे, हेयोपादेय सुणाय ॥ हेउप्पमवो बंधो।
-दशवकालिक नियुक्ति भाष्य, ४६ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभ जिन स्तवन । तुलनीय-आस्रव संवर भाव है, बंध मोख के मूल ।
-समयसार नाटक, ११२ ।