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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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तरह बुद्ध की यह उक्ति भी प्रसिद्ध ही है कि 'यदनिच्चं तं दुक्खं''——जो अनित्य है वह दुःख है । वस्तुतः जन्म, जरा और मृत्यु के चक्र में परिभ्रमण करना ही बन्धन या दुःख कहा गया है । आश्चर्य तो यह है कि जीव बन्धन से तो मुक्त होना चाहता है, किन्तु बन्धन क्या है और उसके कारण क्या है इससे सर्वथा अनभिज्ञ है । यदि जीवन में दुःख है तो उसका कारण अवश्य होगा, क्योंकि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति होती ही नहीं । इस कारण कार्य के सिद्धान्त की पुष्टि में आनन्दघन का कथन
कारण जोगे हो कारज नीपजै, एमां कोई न वाद । विण कारण विण कारज साधिए, ते निज मति उन्माद
किसी योग्य कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं, क्योंकि यह एक न्यायशास्त्रीय सिद्धान्त है । किन्तु बिना ही यदि कोई व्यक्ति कार्य की सिद्धि मान ले तो यह उसकी बुद्धि का उन्माद है । यही बात आत्मा के बन्धन ( दुःख) पर भी लागू होती है। बिना कारण के बन्धन ( दुःख) रूप कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह सर्वविदित है कि आत्मा, अनादिकाल से बद्ध है, लेकिन उस बन्धन से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम यह जानना नितान्त आवश्यक है कि बन्धन क्या है और उसके हेतु क्या हैं ?
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ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् बुद्ध ने भी उक्त प्रश्नों को दृष्टि में रखते हुए. चार आर्य सत्यों का उपदेश किया । उसमें सर्वप्रथम यह बताया कि दुःख क्या है, फिर दुःख समुदय अर्थात् दुःख के कारण, दुःख-निरोध तथा दुःखनिवृत्ति के उपाय बताए । इसी तरह जैनाचार्यों ने भी कर्म-बन्धन का स्वरूप, कर्म-बन्धन के कारण, कर्म-बन्धन से मुक्ति (निरोध) और कर्मबन्धन से मुक्ति के उपायों का सूक्ष्म एवं गहन विश्लेषण किया है ।
सन्त आनन्दघन ने भी जैनदर्शन सम्मत कर्म मीमांसा का पद्मप्रभ जिन स्तवन में संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित विवेचन किया है। एक ओर, जहां उन्होंने आत्म-तत्त्व की गहन मीमांसा की है, वहीं जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त को भी अपनी दृष्टि से ओझल नहीं किया । जहाँ उन्होंने आत्मा
९. यदनिच्चं तं दुक्खं, यं दुक्खं तदनत्ता ।
यदत्ता तं नेतं मम, ने सो हमस्मि न मेसो अत्ता ॥ - संयुक्त निकाय, ४।३५।१