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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
विपरीत है। चौथी तुरीयावस्था है जिसे जैन-मत के सभी सन्तों ने प्रायः उजागर-दशा के नाम से सम्बोधित किया है। जैनदर्शन के अनुसार तुरीयावस्था में सतत जागृति होती है। जाग्रत् और उजागर (तुरीय) दशा में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ जाग्रत् अवस्था अन्तर्मुहूर्त से अधिक एक साथ नहीं रहती, वहाँ उजागर-दशा सदैव बनी रहती है, नष्ट नहीं होती। दूसरे, जाग्रत् अवस्था सप्रयास होती है, जबकि उजागरता सहज होती है ।
उपर्युक्त चार अवस्थाओं के सम्बन्ध में विंशतिका में यह बतलाया गया है कि मोह अनादि-निद्रा है, भव्य-बोधि परिणाम स्वप्न-दशा है। तीसरी जाग्रत्-दशा अप्रमत्त मुनियों को होती है, जैसा कि आचारांग में उल्लिखित है और चौथी उजागर-दशा वीतराग-परमात्मा को प्राप्त होती है।'
जीव की उक्त अवस्थाओं को गुणस्थानों में घटाते हुए आनन्दघन के समकालीन उपाध्याय यशोविजय ने कहा है कि वस्तुतः चेतना की चार अवस्थाएँ होती हैं। पहली बहुशयन-दशा अर्थात् घोर निद्रा जैसी दशा । दूसरी शयनदशा (स्वप्न दशा)। तीसरी जागरण-दशा (जाग्रत् दशा) अर्थात् कुछ जागने रूप और चौथी बहुजागरण दशा। बहुशयन-दशा पहले गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान तक होती है। शयन-दशा चौथे गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक होती है। जागरण-दशा सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक और बहुजागरण-दशा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में
होती है।
इस प्रकार, संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि जीव की उक्त चारों अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की परिचायक हैं । जाग्रत् अवस्था में व्यक्ति चर्मचक्षुओं से समूचे पदार्थों को यथावस्थित रूप में देख सकता है, किन्तु सुषुप्त अवस्था में (जिसे आनन्दघन की शब्दावली में निद्रावस्था कहा १. मोहो अणाइ निद्दा सुवणदसा भव्ववोहि परिणामो। अपमत्त मुणी जागर, जागर, उजागर वीयराउत्ति ॥
-विंशतिका, उद्धृत-अध्यात्म-दर्शन, पृ० ४०७ । २. चार छे चेतनानी दशा, अवितथा बहुशयन शयन जागरण चौथी तथा । मिच्छ, अविरत, सुयत तेरमे तेहनी, आदि गुण ठाणे नयचक्र माहे मुणी ॥
-३५० गाथा-स्तवन, ढाल १६ वीं, गाथा २।