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आनन्दघन का रहस्यवाद ज्ञान-चेतना साकार । दर्शन (निराकार चेतना) अभेद अर्थात् वस्तु के सामान्य-स्वरूप को ग्रहण करता है, जबकि ज्ञान (साकार चेतना) भेद अर्थात् वस्तु के विशेष स्वरूप को ग्रहण करता है।
यही चेतना परिणमन की अपेक्षा से तीन प्रकार की है । यद्यपि चेतना अपने आप में एक और अखण्ड तत्त्व है, तथापि विभिन्न अवस्थाओं अथवा अपेक्षाओं से उसके ये तीन रूप बन जाते हैं। आनन्दघन त्रिविध चेतना का वर्गीकरण करते हुए कहते हैं :
परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान-करम-फल भावि रे। ज्ञान-करम-फल चेतन कहिए, ले जो तेह मनावीरे ।'
आत्मा परिणामी स्वभाव वाला है। आनन्दधन ने जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा को 'नित्य-परिणामी' माना है। अर्थात् आत्मा नित्य होते हुए भी परिवर्तनशील है। ज्ञान, कर्म (संकल्प) और कर्मफल (सुख-दुःख रूप अनुभूति) ये तीन आत्मा के परिणाम कहे गये हैं। इस प्रकार चेतना तीन प्रकार की है-ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्म-फल चेतना। उक्त त्रिविध चेतना का प्रतिपादन प्रवचनसार एवं अध्यात्मसार में भी है। वस्तुतः उपर्युक्त पंक्तियां प्रवचनसार की १२५ वी गाथा की अक्षरशः अनुवाद रूप प्रतीत होती हैं।
१. आनन्दघन ग्रन्थावली । २. परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेतणातिधाऽभिमदा ।
सा पुण णाणे कम्मे फलम्भिवा कम्मणो भणिदा ॥ णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥ अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाण-कम्म-फल भावि । तम्हा गाणं कम्मं फलं च, आदा मुणेदव्वो॥
-प्रवचनसार, गाथा १२३-२५ । ३. ज्ञानाऽख्या चेतना बोधः, कर्माऽख्यादृिष्ट-रक्तता। जन्तोः कर्मफलाऽऽख्या, सा वेदना व्यपदिश्यते ॥ --उपाध्याय यशोविजय विरचित-अध्यात्मसार, १८, ४५
आत्मनिश्चयाधिकार।