________________
आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
२०५
करना ही साधक का मुख्य लक्ष्य है। किन्तु इसके लिए सबसे पहले बहिरात्मा के लक्षण व स्वरूप को समझना आवश्यक है। यह सत्य भी है कि जब तक बहिरात्मा के स्वरूप का परिज्ञान न हो, तब तक साधक अन्तरात्मोन्मन्त्री नहीं बनता और जब तक वह अन्तरात्मोन्मुखी ही नहीं होगा तो परमात्मोन्मुखी कैसे हो सकेगा ? __ यहाँ प्रश्न होता है-आत्मा के प्रथम प्रकार को जानने से क्या लाभ ? लाभ तो है परमात्मा के स्वरूप को जानने में, क्योंकि उससे स्व-स्वरूप का बोध होता है। इसमें सन्देह नहीं कि जब तक संसार के स्वरूप का तथा शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध न हो, तब तक स्व-स्वरूप की उपलब्धि कदापि सम्भव नहीं। अनात्मा को जानने पर ही आत्मा को जाना जा सकता है। यदि साधक को यह बोध ही न हो कि आत्मा की वे कौनसी स्थितियाँ हैं जो परमात्म-दशा तक पहुंचने में बाधक हैं, वह आत्मविकास के क्षेत्र में अग्रसर हो नहीं सकता। अतएव स्व-स्वरूप या परमात्म-दशा की प्राप्ति में अवरोधक तत्त्वों का परिज्ञान नितान्त आवश्यक है, क्योंकि रोग को जाने बिना रोग से मुक्ति सम्भव नहीं। परमात्म-दशा की प्राप्ति में बाधक तत्त्व है, आत्मा की बहिर्मुखता अर्थात् विषय भोगों की आकांक्षा । बहिर्मुखी आत्मा परमात्म-दशा से विमुख रहता है।
अब मूल प्रश्न यह है कि बहिरात्म-दशा के लक्षण क्या हैं, बहिर्मुखता की पहचान क्या है ? बहिरात्मा का लक्षण बताते हुए आनन्दघन कहते हैं :
आतम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरात्म अधरूप सुज्ञानी ।' शरीरादि में आन-बुद्धि रखना ही बहिरात्मता है। जो मनुष्य देह और आत्मा को एक मानता है, वह बहिरात्मा है और ऐसा बहिरात्मा पाप
आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, आचार्य पूज्यपाद, योगीन्दु १. आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमतिजिन स्तवन । २. अक्खाणि बहिरप्पा। -मोक्ष-प्राभृत, गाथा ५ ।
मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व-कसाएण सुदु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं भण्णंतो होदि बहिरप्पा ।।
-स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा। ४. बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिः ।।
-समाधितंत्र,५।