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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
होंगे वहाँ राग-द्वेष होगा और जहाँ राग-द्वेष होंगे वहाँ बन्धन होगा । स्वयं आनन्दघन ने कहा है 'राग दोष जग बंध करत है' -राग-द्वेष ये दोनों संसार को बंधन में डालते हैं और बन्धन पाप है । आनन्दघन भी यही कहते हैं - 'बहिरातम अघरूप।' आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं में यह प्रथम अवस्था इसीलिए हेय है । दर्शन की भाषा में बहिरात्मवर्ती को चार्वाक मत का अनुयायी या भौतिकवादी कहा जा सकता है, क्योंकि उसका एकमात्र लक्ष्य शरीर ही है । वह भोग को महत्त्व देता है और शरीर को ही सर्वस्व समझता है । कहा है :
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
वस्तुतः बहिरात्मवर्ती जीव वर्तमान पौद्गलिक सुखों को प्राप्त करने में ही जीवन की इतिश्री मानता है । भौतिकता की चकाचौंध में वह आत्मा और शरीर के भेद को नहीं समझ पाता । उसकी यह धारणा रहती है कि 'यह शरीर मेरा है, मैं इसका हूँ । शरीर और शरीरोपयोगी समस्त पदार्थों पर उसकी 'मैं' और 'मेरे पन' की बुद्धि होती है जिसके कारण राग-द्वेष की जड़ें मजबूत होती जाती हैं। ऐसे व्यक्ति की समग्र चेतना मोह से आवृत्त हो जाती है । इसी दृष्टि से आनन्दघन ने बहिरात्मवर्ती जीव को मूढ़ कहा है :
बहिरात मूढ़ा जग जेता, माया के फंद रहेता । '
बाह्य वस्तुओं में आत्मतत्त्व बुद्धि रखने वाले संसार में जितने भी मूढ़ जन हैं, वे सब माया के चक्कर में फँसे हुए हैं ।
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अब देखना यह है कि आनन्दघन की दृष्टि में मूढ़ जन के क्या-क्या लक्षण हैं ? इस बहिरात्म स्थिति में मूढ़जन की दशा और धन के प्रति उसकी आसक्ति का सुन्दर चित्रण करते हुए आनन्दघन कहते हैं :
धन धरती में गाड़े बोरा, धूरि आप मुख लावै । मूषक साँप होइगो आखर, तातै अलछि कहावै ॥२
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ९७ ।
वही, पद ४ ।