________________
२१२
आनन्दधन का रहस्यवाद
अन्तरात्मा का मुख्य लक्षण है-वह, जो शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध सर्व पदार्थों एवं समग्र प्रवृत्तियों में, ममत्व-बुद्धि का त्याग कर उन सबका साक्षी-ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहता है। इसीलिए अन्तरात्मा को शरीर का राजा कहा गया है। अन्तरात्मा बहिरात्मा से सर्वथा पृथक् होता है। यद्यपि अन्तरात्मवर्ती जीव शरीर में रहता है, फिर भी वह उससे चिपका नहीं रहता। वह शरीर को परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मान कर चलता है, साध्य नहीं। इतना ही नहीं, वह शरीर के भीतर रह कर भी शरीर का ज्ञाता-द्रष्टा होकर रहता है। उसके प्रति ममत्व-बुद्धि नहीं रखता। वह संसार की यथोचित प्रवृत्तियाँ करते हुए भी कमलपत्रवत् निर्लिप्त रहता है। इस अवस्था में साधक की चिन्तन-धारा बदल जाती है। उसे यह स्पष्ट बोध हो जाता है कि शरीर विनाशी है, मैं अविनाशी हूँ'-जब यह सत्य स्पष्ट अनुभव में आता है कि 'मैं शरीर से भिन्न हूँ तब साधक की आसक्ति (ममत्व-बुद्धि) पर इतना तीव्र प्रहार होता है कि मोह का किला ढह जाता है, क्योंकि मोह का उद्गम-स्थल शरीर माना गया है। जब शरीर और आत्मा को एक मानने की भ्रान्ति टूट जाती है तो भेद-विज्ञान प्रकट हो जाता है। इस सम्बन्ध में आनन्दधन का यह अनुभव द्रष्टव्य है :
देह विनाशी, हूँ अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे। नासी जासी हम थिरवासी, चोखे ह निखरेंगे ॥'
शरीर विनाशशील है और मैं (आत्मा) अविनाशी हूँ। आत्मतत्त्व से भिन्न पुद्गल निर्मित इस शरीर का नाश हो जायगा किन्तु आत्मा स्थिर, अमर रहेगा। वस्तुतः आनन्दघन की यह आत्मानुभूति इस बात की प्रतीक है कि वे भेद-विज्ञानी थे। भेद-ज्ञान होने पर साधक का जीवन के प्रति सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। शरीरादि की आसक्ति टूटने लगती है और शुद्धात्म-सूर्य का उदय हो जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है अर्थात् उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में, अन्तरात्मा को पहचानने का यही एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। इस सम्बन्ध में आनन्दघन कहते हैं कि हे अवधू ! आत्मा और शरीर की पृथक्ता का बोध हो जाने से अब मेरी अनुभव-ज्ञानरूप (सम्यग्दर्शनरूप) कली विकसित हो
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०० ।