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आनन्दघन का रहस्यवाद
तत्त्व है तो वह एकमात्र मोक्ष में (स्व स्वरूप में) निवास करनेवाली आत्मा है | तन-धन-यौवनादि की क्षणभंगुरता के सम्बन्ध में अन्यत्र भी उन्होंने - कहा है।' इसी तरह एक अन्य पद में बहिरात्मवर्ती जीव को अज्ञान-दशा से अन्तरात्मा की ओर प्रेरित करते हुए आनन्दघन का कथन है कि
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क्या सोवेतन मठ में, जागि बिलोकन घट में । तन मठ की परतीत न कीजै, ढहइ परै एक पल में । हलचल मेटि खबरि लै घट की, चिन्है रमता जल में ॥ २
अर्थात् हे आत्मन् ! इस देहरूपी मठ में क्यों सो रहा है ? अज्ञान निद्रा अर्थात् बहिरात्म-अवस्था से विमुख हो और जाग्रत अवस्था ( अन्तरात्मअवस्था) में स्थित होकर अपने भीतर देख । शरीररूपी मठ में तू बड़ी ही निश्चितता से सो रहा है, किन्तु इस पर विश्वास करना उचित नहीं है, क्योंकि यह एक क्षण में ढह जानेवाला है । अतः सम्पूर्ण सांसारिक क्रियाकलाप रूप हल-चल को छोड़कर अन्तरात्मा में स्थित होकर हृदय में स्वस्वरूप का अवलोकन कर । इस हृदयरूपी सरोवर में रमण करने वाले आत्माराम को पहचान |
इस नश्वरता को देखकर उन्होंनें मूढ़ मानव को सजग करते हुए फिर कहा है कि अरे भोले मानव ! मोह निद्रा (बहिरात्म - दशा) में क्या सो रहा है ? यदि जीवन में कुछ पाना है तो मोह-निद्रा से जागृत हो और देख, आयु अंजलिगत जल की भांति अबाधगति से क्षीण होती जा रही है । प्रत्येक पहरेदार घण्टा बजाकर यही चेतावनी देता है कि जो घड़ी बीत गई है, वह कभी लौट कर आनेवाली नहीं है । इस संसार से इन्द्र, चन्द्र, धरणेन्द्र यहां तक कि तीर्थंकर को भी विदा होना पड़ा तो फिर राजा, सम्राट् और चक्रवर्ती किस गणना में हैं ? ये सब महापुरुष इस दुनिया से चल बसे तो फिर तू किस खेत की मूली है ? भव-समुद्र में भटकते-भटकते पुण्योदय से यह मनुष्य जन्म और परमात्म-भक्तिरूप सहज नौका हाथ लग गई है, तो अब अविलम्ब इस विषय-वासनारूप सागर से पार हो जा
१. तन धन जोबन सब ही झूठो प्राण पलक में जावै । तन छुटै धन कौन काम को, कायकूं कृपण कहावै ॥
२. वही, पद ५७ ।
- आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ८४ ।