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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २०९ जैसे आकाश में पक्षी के और जल में मछलियों के पदचिह्नों को खोजनेवाला व्यक्ति वस्तुतः मूर्ख समझा जाता है, वैसे ही जड़ वस्तुओं में या पौद्गलिक पदार्थों में सुख की खोज करनेवाला व्यक्ति भी मूर्ख ही है। दूसरे शब्दों में, जैसे पक्षियों के आकाश में और मीन के सरोवर में पदचिह्नों को खोजना निष्फल है, वैसे ही पर-पदार्थों में जो कि क्षणिक हैं, नश्वर हैं, सुख खोजना वृथा है।
प्रश्न होता है-आखिर आत्मा मोह-माया में कबतक उलझा रहता है, इस मोह-माया से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है ? बहिरात्मअवस्था से अन्तरात्म-दशा की ओर उन्मुख करानेवाली ऐसी कौन-सी प्रेरक परिस्थितियाँ हैं ? यहाँ पर उन परिस्थितियों का विवेचन करना अभीष्ट है जो मूढ़ मानव को अन्तरात्म-दशा की ओर प्रेरित करती हैं। यह सही है कि निमित्त कारण के बिना कार्य नहीं होता। जब तक परपदार्थों से या शरीर की नश्वरता के प्रति विरक्ति नहीं होगी, तब तक जीव अन्तरात्मवर्ती नहीं हो सकता। ___ सर्वप्रथम आनन्दघन बहिरात्मवर्ती मूढ़ मानव को अन्तरात्म-दशा की ओर उन्मुख करने हेतु पुद्गल की अनित्यता का बोध कराते हुए चेतावनी देते हैं :
या पुद्गल का क्या विसवासा, है सुपने का वास रे । चमत्कार बिजली दे जैसा, पानी बिच पतासा॥ या देही का गर्व न करना, जंगल होयगा वासा ।। जूठे तन धन जूठे जोवन, जूठे हैं घर बासा।
आनन्दधन कहे सब ही जूठे, सांचा शिवपुर वासा ।।' इस शरीररूप पुद्गल-द्रव्य पर क्या विश्वास करना ? इसका वास तो स्वप्नवत् है। आकाश में जैसे-विद्युत् का क्षणिक प्रकाश होता है और पानी में डाला गया बताशा जिस प्रकार अतिशोघ्र समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार यह पुद्गल निर्मित शरीर भी क्षणिक है, नश्वर है। इस पर मिथ्या गर्व करना या इसे अपना मानना वृथा है, क्योंकि अन्ततः एक दिन यह नष्ट होने वाला है। तन, धन, यौवन, घर, परिवार आदि जितने भी पर-पदार्थ हैं, वे सब मिथ्या हैं, क्षणिक हैं। यदि कोई सत्य या अविनाशी
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०७ ।