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आनन्दधन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
'१८५ जहां वेदान्त एवं सांख्य-दर्शन आत्मा को इन दोनों अर्थों में नित्य मानते हैं, वहाँ न्याय-वैशेषिक और मीमांसक उसे केवल प्रथम अर्थ में ही नित्य मानते हैं। इसी प्रकार, अनित्य के भी दो अर्थ हैं-(१) विनाशशील और (२) परिवर्तनशील । जहां चार्वाक प्रथम अर्थ में आत्मा को अनित्य मानता है वहाँ बौद्धदर्शन दूसरे अर्थ में आत्मा को अनित्य मानता है । नित्य पात्मवाद __चार्वाक और बौद्ध-दर्शन को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय विचारक आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करते हैं। विशेषतः वेदान्त और सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं। नित्य आत्मवाद के सम्बन्ध में आनन्दधन का कथन है कि इस मत के अनुसार आत्मा कूटस्थ नित्य है।' आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने का तात्पर्य यह है कि उसमें कहीं कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता। ___ यद्यपि नित्य आत्मवाद द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से उपयुक्त अवश्य है और इस दृष्टि से इसका मूल्य भी है, किन्तु आत्मा की ऐकान्तिक नित्यता का यह सिद्धान्त तर्क की कसौटी पर दोषपूर्ण सिद्ध होता है। आनन्दधन ने एकान्त नित्य आत्मवाद की समीक्षा करते हुए निम्नलिखित आक्षेप प्रस्तुत किया है। ___ (१) यदि आत्मा को कूटस्थ नित्य माना जाय तो उसमें कृतविनाश दोष उपस्थित होता है, क्योंकि कूटस्थ-नित्य आत्मा तो अकर्ता है, अबद्ध है। किन्तु व्यवहार में व्यक्ति शुभाशुभ क्रियाएँ करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। प्रायः सभी धर्मों में बन्धन से मुक्त होने के लिए व्रत, तप, जप आदि साधनाएँ बतायी गयी हैं। लेकिन कूटस्थ-आत्मवाद की दृष्टि से आत्मा के अकर्ता होने के कारण मुक्ति-प्राप्ति के लिए की गई समस्त साधना विफल होगी, क्योंकि कूटस्थ आत्मवाद के अनुसार आत्मा परिवर्तनों से परे है, जबकि कपिन और भोक्तापन आत्मा की विभाव-दशाएँ हैं। १. एक कहै नित्यज आतमतत, आतम दरसण लीनो ।
-आनन्दधन ग्रन्थावली, मुनि सुव्रत जिन स्तवन । २. कृत विनास अकृतागम दूषण, नवि देखै मति हीनो ।
-वही।