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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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है। यह कहावत सत्य है कि जिस तरह संसार में एक अंधा दूसरे अंधे को धक्का देकर चलता है उसी तरह ममता में अंधा होकर आत्मा भी मनरूपी मन्त्री के मते ही चल रहा है। ऐसी स्थिति में कौन किसका यथार्थ पथ-प्रदर्शन कर सकता है ?' यदि अंधा मनुष्य अंधे का ही सहारा लेकर चले तो कैसे अपने गन्तव्य स्थल पर पहुंच सकता है ? आनन्दघन ने इस प्रसिद्ध लोकोक्ति का प्रयोग कर आत्मा और मन की अंध-दशा का स्पष्टीकरण किया है। संस्कृत में भी एक कहावत है
अंधेनैव नीयमाना यथान्धाः। उन्होंने अन्यत्र भी 'अंधों अंध पलाय' कहावत का प्रयोग किया है जिसका संकेत जैनागम सूत्रकृतांग सूत्र में मिलता है । आनन्दघन ने आत्मा की वैभाविक दशा की दयनीयता पर प्रकाश डालते हुए एक मार्मिक अपील की है, जो इस प्रकार है-'समता ममता पर कटाक्ष करती हुई कहती है कि अरे! यह ममता सौत पर-घर में भटक रही है, इसे कोई रोको । इसकी तो राग-द्वेष रूप संसार में भ्रमण करने की आदत ही हो गई है। इसका तो विभावों में भटकने का जन्मजात स्वभाव ही है, किन्तु इसने स्वामी (आत्मा) को भी अपनी ओर आकर्षित कर रखा है। अतः वह इस ममता के साथ रस ले रहा है, किन्तु इसका परिणाम क्या आनेवाला है, इसका विचार इसने कभी नहीं किया। समता ममता के प्रति कहती है कि यह तो पर-घर में घूमने के कारण मिथ्या-भाषण करने वाली हो गई है। इसे सत्यासत्य का कोई विवेक नहीं है। यह आत्मा को बहकाती है, जिससे उसे भी कलंकित होना पड़ता है। इसकी झूठ-कपट आदि प्रवृत्तियों को देखकर लोग व्यभिचारिणी या पुंश्चलि कह देते हैं। इसके साथ आत्मा १. परघर ममता स्वाद किसौ लहै, तन धन जोबन हाणि ।
दिन दिन दीसै अपजस बावतो, निज मन मानै न काणि ।। कुलवट लोपी अवट ऊवट पडै, मन महुता नै घाट । आंधै आंधौ जिम जग ठेलियै, कौण दिखावं वाट ।।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४१ । आनन्दघन ग्रन्थावली, अजितजिन स्तवन एवं धर्मजिन स्तवन । अंधो अंधं पहं नितो दूरमद्धाण गच्छति । आवज्जे उप्पहं जंतू अदूवा पंथाणु गामिए ।
-सूत्र कृतांग, श्रुतस्कन्ध १, अ०१, उ०२।