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आनन्दघन का रहस्यवाद
वस्तुतः आनन्दकन्द प्रभु का निज घर तो समता ही है, अन्य वैभाविक परिणाम तो आनुमानिक. काल्पनिक अथवा छद्मवेशी हैं ।
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एक ओर जहां उन्होंने आत्मा की स्वभाविक दशा समता पर प्रकाश डाला है, वहीं दूसरी ओर आत्मा की वैभाविक अवस्था ममता का भी सुन्दर चित्र खींचा है ।" आत्मा के लिए ममता के रस लेना निस्सार है । जैसा कि आनन्दघन ने कहा है
ममता संग सुचाइ अजागल थन ते दूध दुहावे | 2
ममता का साथ आत्मा के लिए बकरी के गले के स्तनों से दूध दुहने की भांति है ।
तत्त्वतः आत्मा सहज स्वाभाविक गुणों से युक्त है, किन्तु कर्म सम्बद्ध होने से अपने मूल रूप को विस्मृत कर पर भावों में विचरण करता है और परिणामतः चतुर्गति में भटक रहा है । आनन्दघन ने आत्मा की इसी विकृत - दशा का अत्यन्त सुन्दर वर्णन करते हुए कहा है कि जैसे -सूर्य पूर्व दिशा को छोड़कर पश्चिम दिशा से अनुरक्त होकर अस्त हो जाता है, वैसे ही यह आत्मा जब समतारूपी स्व-घर को छोड़कर ममता रूप पर-घर में अनुरक्त हो जाता है तब उसकी सहज स्वाभाविक दशा पर अज्ञान का अन्धकार छा जाता है। इतना ही नहीं, आत्मा के पर-घर में प्रवेश करने से क्या हानि होती है, इसका भी यथार्थ चित्र उन्होंने खींचा है । वे कहते हैं कि आत्मा को पर-घर रूप विभाव-दशा में भटकने से किस आनन्द की अनुभूति होती है ? वहां कुछ भी तो नहीं मिलता । पर-घर में प्रवेश करने से तो लाभ के बदले हानि ही होती है । मुख्य रूप से धन, यौवन तथा शरीर की क्षति होती है । इसके साथ ही, लौकिक-व्यवहार में भी जीवन भर अपयश मिलता है । वस्तुतः आत्मा अपने वंश रूप निज स्वरूप की मर्यादा का उल्लंघन कर मन रूपी मन्त्री के चक्कर में पड़ गया है और उसके कथानानुसार ही उन्मार्ग में परिभ्रमण कर रहा
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४३, ४५, ४६ ॥
२.
वही, पद २८ ।
३. बालूडी अबला जोर किसौ करै, पीउडो पर घर जाई ।
पूरब दिसि तजि पच्छिम रातडौ, रवि अस्तगंत थाई ॥ वही, पद ४१ ।