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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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(स्वभाव) कहा गया है । अतः स्पष्ट है कि जब आत्मा समत्व भाव में स्थिर रहता है तब उसमें विभाव-दशा नहीं रहती। किन्तु जब आत्मा निज से भिन्न विजातीय पर-भावों या राग-द्वेष में रमण करने लगता है तब उसमें स्वभाव-दशा या समता नहीं रहती। इसी सन्दर्भ में आनन्दधन ने कहा है : “एक ठामे किम रहै, दूध कांजी थोक"१-जैसे दूध और कांजी का समूह एक स्थान पर नहीं रह सकता, वैसे ही स्वभाव और विभाव रूप विपरीत अवस्थाएँ एक साथ आत्मा में नहीं रह सकतीं। जहां समता है वहां ममता का निवास नहीं और जहां ममता है वहां समता का आवास नहीं। उन्होंने दोनों के अन्तर को भी स्पष्ट किया है :
मोहि और बिन अन्तर एतों, जेतो रूपै रांग । समता और ममता अर्थात् स्वभाव और विभाव के मध्य इतना अन्तर है जितना चांदी और रांगा में।
आत्मा यद्यपि कर्म-परमाणुओं से सम्पृक्त होने के कारण वैभाविक पौद्गलिक पदार्थों के प्रति आकर्षित हो रागादि भाव करता है, फिर भी यह विभाव दशा उसका स्व स्वभाव नहीं है। उसका स्वभाव तो समता
समता के विषय में आनन्दधन का कथन है कि चेतन विभाव-दशा में रस ले रहा है, यह बात उसकी उन्मत दशा स्वतःही बता रही है, किन्तु आत्मा को स्वाभाविक परिणति तो समता ही है। समता के अतिरिक्त आनन्दघन रूप आत्मा का अपना अन्य कोई नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि माया-ममता आदि विभाव तो सांयोगिक, औपाधिक एवं पराश्रित हैं जबकि समता-भाव सहज, निरुपाधिक एवं स्वाश्रित हैं। इसी लिए आनन्दघन ने कहा है :
आनन्दघन प्रभु को घर समता, अटकलि और लिबासी। १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ५० । २. वही, पद २१। । ३. औरन के संग राचे चेतन, माते आप बतावै । आनंदघन की समता, आनंदघन वाकै न कहावै ॥
-वही, पद २८। ४. वही, पद ४३।