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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २०१ वैभाविक दशाओं का चित्रांकन किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता-ममता के अन्तर्गत् आत्मा के स्वाभाविक और वैभाविक दशा के पोषक भावों की भी विवेचना की है।'
इस प्रकार, हम देखते हैं कि आनन्दघन का रहस्यवादी दर्शन विभाव से स्वभाव की ओर (ममता से समता की ओर) आने पर अत्यधिक बल देता है। इस दष्टि से उनके दर्शन को स्वभाव या -:.""-.:: कहना समुचित ही होगा। यद्यपि उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माइन तीन अवस्थाओं पर पृथक् से प्रकाश डाला है जिसमें वहिरात्म-दशा ही आत्मा की विभाव-दशा है, अन्तरात्म-अवस्था आत्मा के विभाव-दशा से, स्वभाव-दशा की ओर प्रयाण की सचक है और तीसरी परमात्म-अवस्था है जो कि आनन्दस्वरूप है. स्वभाव-दशा में नित्य अवस्थिति की परिचायक है और यही शुद्धात्मा की अवस्था है । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा
जैन सिद्धान्त के अनुरूप सन्त आनन्दघन ने आत्मा की तीन अवस्थाएँ भी बतलाई हैं-(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा, और (३) परमात्मा । आत्मा के त्रिविध वर्गीकरण की यह परम्परा अति पुरानी है । आनन्दघन के पूर्ववर्ती अनेक जैनाचार्यों एवं साधकों ने आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं पर विचार किया है। उनमें से कुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दु मुनि, आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र प्रभृति के नाम उल्लेखनीय हैं।
आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं का उल्लेख सबसे पहले कुन्दकुन्द के 'मोध-प्राभान' में मिलता है। स्वामी कार्तिकेय ने भी 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा'
तिसना रांड भांड की जाई, कहा घर करै सवारौ। सठ ठग कपट कुटंबहि पोषत, मन में क्यून बिचारौ । कुलटा कुटिल कुबुद्धि संग खेलि कै, अपनी पत क्यु हारौ । आनन्दघन समता घर आवै, बाजै जीत नगारौ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४०। १. वही, पद ७९ एवं ८०। २. तिपयारो सो अप्प परमेतर बाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो झाइज्जइ, अंतोवाएण चएहि बहिरप्पा ॥
-मोक्ष पाहुड, ४।