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आनन्दघन का रहस्यवाद
में आत्मा के उपर्युक्त तीन भेद प्रतिपादित किए हैं । यद्यपि उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने परमात्मा के भी दो वर्ग बताए हैं - एक अरहंत और दूसरा सिद्ध । इसी तरह पूज्यपाद ने 'समाधितन्त्र' में आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं की चर्चा की है । योगीन्दु मुनि ने 'परमात्म- प्रकाश' एवं 'योगसार' में आत्मा की इन तीन अवस्थाओं पर प्रकाश डाला है । 'योगसार' में उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन नामों का संकेत किया, किन्तु परवान प्रवान में मूढ़, विचक्षण और पर-ब्रह्म ऐसे तीन नामों का उल्लेख किया है । आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में आत्मा की तीन अवस्थाओं का निर्देश किया है । इसी तरह आचार्य हेमचन्द्र ने 'योग - शास्त्र' में एवं पं० आशाधर ने 'अध्यात्म - रहस्य'" में आत्मा की उपर्युक्त अवस्थाओं का विवेचन किया है ।
१. जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा विय दुविहा अरहंता तह य सिद्धाय ॥ स्वामी काम २. बहिरंतः परश्चेति त्रिघात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्य जेत् ॥
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समाधितंत्र, ४ ।
३. ति पयारो अप्पा मुणहि पर अंतरु बहिरप्पु । पर जायहि अंतर - सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ॥ —योगसार, ६ । विहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणड़ सो जणु मूढ हवइ ||
४. मूढ वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति
५.
६.
- परमात्म-प्रकाश, १३ ।
त्रिप्रकार: स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः । बहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः ।।
७. अध्यात्म - रहस्य, श्लो० ४-५ ।
-- ज्ञानार्णव, ५ ।
बाह्यात्मानमपास्य प्रसक्ति भाजान्तरात्मना योगी । सततं परमात्मानं विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय ॥
— योगशास्त्र, द्वादश प्रकाश, ६ ।
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