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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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जा सकता है ? अर्थात् अरूपी आत्मा कर्म से कैसे बंध सकता है ? यदि आत्मा को रूपी और अरूपी उभय रूप कहता हूँ तो अनुपम ऐसे सिद्ध परमात्मा के लक्षण से मेल नहीं बैठता, क्योंकि सिद्ध परमात्मा का कोई रूप नहीं है। इसी प्रकार, यदि आत्मा को सिद्ध-स्वरूप कहता हूँ तो बंध और मोक्ष की कल्पना घटित नहीं होती, क्योंकि जो सदा शुद्ध है वह बंधन में कैसे पड़ सकता है अर्थात् आत्मा को अनादिकाल से शुद्ध मानने पर बन्धन और मोक्ष की कल्पना सिद्ध नहीं होती। मात्र यही नहीं, आत्मा को सिद्ध-स्वरूपी कहने से सांसारिक दशा घटित नहीं होगी और सांसारिक दशा के अभाव में पुण्य-पाप, पुनर्जन्म आदि की कल्पना भी निरस्त हो जाएगी। यदि आत्मा को सनातन तत्त्व कहता हूँ तो प्रश्न उठता है कि उत्पन्न होने वाला और मरने वाला कौन है ? और यदि उत्पन्न होने वाला तथा मरने वाला मानता हूँ तो प्रश्न उठता है कि नित्य और शाश्वत कौन है ? अतः आत्मा का स्वरूप तो पक्षातिक्रान्त है । उसके सम्पूर्ण स्वरूप को किसी एक नय द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन नयवादी विचारक एक ही दृष्टिकोण से आत्मा के स्वरूप को अपना कर विवाद करते रहते हैं और विवाद में उलझने से आत्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रह जाते हैं। आत्मा का स्वरूप तो अनुभव ज्ञान से ही समझा जा सकता है। अन्त में आनन्दघन इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आत्मा अनुभव का विषय है तथा वह कथन और श्रवण की सीमा के परे की वस्तु है। उन्हें भी अन्ततः उपनिषद्कारों की भांति यही कहना पड़ा कि 'कहन सुनन को कछु नहीं प्यारे आनन्दघन महाराज' -आत्मा का स्वरूप वास्तव में कहने सुनने जैसा नहीं है, क्योंकि यह तो आनन्दपुंज से युक्त है।' इसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता।
१. निसाणी कहा बताऊं रे, वचन अगोचर रूप ।
रूपी कहुँ तो कछु नहीं रे, बंधइ कइ सइ अरूप । रूपारूपी जो कहुँ प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । सिद्ध सरूपी जो कहूं रे, बंध न मोख विचार । न घटै संसारी दसा प्यारे, पाप पुण्य अवतार ॥ सिद्ध सनातन जो कहूं रे, उपजइ विणसइ कौन । उपजइ विणसइ जो कहूं प्यारे, नित्य अबाधित गौन ।