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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार १८७ बौद्ध-दर्शन का अनात्मवाद-क्षणिकवाद का सिद्धान्त ही बहुचर्चित रहा है। इसके सम्बन्ध में आनन्दघन का कथन है कि बौद्ध-दर्शन के अनुसार आत्मा क्षणिक है।"वह प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है।
वस्तुतः बौद्धमत में विज्ञान-स्कन्धन या अविच्छिन्न परिवर्तनशील चेतना के प्रवाह को ही आत्मा के रूप में माना गया है। पाश्चात्य दार्शनिक प्रो० विलियम जेम्स ने भी विज्ञान (चेतना) को चेतन अनुभूतियों का प्रवाह मानते हुए नित्य आत्मा के स्थान पर चित-सन्तति (स्ट्रीम आव् थाट) को स्वीकार किया है। पाश्चात्य-दार्शनिक ह्य म भी आत्मा की अनित्यता का समर्थक है। इसी तरह पाश्चात्य दार्शनिक हैरेविलट्स भी क्षणिकवाद के पोषक हैं। क्षणिकवाद या अनित्यवाद के सम्बन्ध में बौद्धदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है-'यत सत् तत् क्षणिकम्'-जो सत् पदार्थ है, वह क्षणिक है। आत्मा भी एक सत्पदार्थ है, अतः वह भी क्षणिक है।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि यह दर्शन एकान्तरूप से आत्मा के परिवर्तनशील पक्ष पर ही अधिक बल देता है। बौद्धदर्शन आत्मा की नश्वरता (उच्छेदवाद) को नहीं, प्रत्युत आत्मा की सतत परिवर्तनशीलता के अर्थ को ही द्योतित करता है। इस दृष्टि से इसे परिवर्तनशील आत्मा का सिद्धान्त भी कह सकते हैं।
सामान्यतया चार्वाक को भी अनित्य आत्मवादी कहा जाता है। किन्तु चार्वाक दर्शन के और बौद्धदर्शन के अनित्य-आत्मवाद में कुछ भिन्नता है। चार्वाक के अनित्य आत्मवाद के अनुसार चैतन्य विशिष्ट देह को ही आत्मा माना गया है। देह के नष्ट होते ही चैतन्य भी सदा के लिए नष्ट हो जाता है। इस प्रकार चार्वाक चेतनायुक्त शरीर को ही आत्मा मानकर उसकी अनित्यता प्रतिपादित करता है। बौद्धों की परम्परागत भाषा में वह उच्छेदवादी है। इस सम्बन्ध में उसकी प्रसिद्ध उक्ति है
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।
१. सुगत मत रागी कहै वादी, क्षणिक ए आतम जाणो ।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, मुनि सुव्रत जिन स्तवन । २. स्याद्वादमंजरी, पृ० ३१६ ।