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आनन्दघन का रहस्यवाद वास्तव में, इस सिद्धान्त के अनुसार यही सिद्ध होता है कि व्यवहार में मनुष्य जो साधनाएँ या शुभाशुभ कर्म करता हुआ दिखाई देता है, वह निरर्थक है। जीवन भर की गई साधनाओं-क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मात्र इतना ही नहीं, अपितु अनन्त जन्म तक कर्म करने पर भी सब कृत कर्म निष्फल होंगे। किन्तु इससे बन्धन और मोक्ष की प्रक्रिया असम्भव होगी। सामान्यतया हम देखते हैं कि जीव बन्धनयुक्त है और बन्धन से मुक्त होने के लिए वह शुभ कर्म करता है, किन्तु नित्यात्मवाद के मानने पर बन्धन से मुक्त होने के लिए साधक के कृत कर्मों का क्या प्रयोजन रह जाएगा? यह निर्विवाद सत्य है कि बन्धन से मुक्त हुए बिना आत्म-दर्शन या आत्म-स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती। इसके लिए साधना की आवश्यकता रहती है। साधना के अभाव में जीव कभी मुक्त नहीं हो सकता और जब व्यक्ति मुक्त नहीं होगा तो नित्यात्मवाद में 'मोक्ष' प्रत्यय की क्या उपयोगिता रहेगी ?
कहने का तात्पर्य यह है कि एकान्त रूप से आत्मा को अपरिवर्तनशील मानने पर 'कृतविनाश' (किए हुए कर्मों का नाश) नामक दूषण होता है। आत्मा के नित्य एवं अकर्ता होने से व्यक्ति के द्वारा कृत शुभाशुभ कर्मों का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
(२) यदि आत्मा को कटस्थ नित्य माना जाए तो व्यक्ति को सुख-दुःख रूप कर्मफल का अनुभव नहीं होना चाहिए। लेकिन हम यह भी देखते हैं कि मानव को शुभाशुभ कर्म के कारण मधुर या कटु अनुभव होते हैं जबकि नित्यात्मवादियों के अनुसार स्व-स्वरूप में लीन कूटस्थ नित्य आत्मा तो कुछ भी कर्म करता नहीं है। फिर भो, वह नहीं किए हुए कर्मों का फल भोगते हुए देखा जाता है इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नित्य आत्मवाद में नहीं किए हुए कर्मों का फल भी मनुष्य को मिलता है। अतः इस सिद्धान्त के मानने पर दूसरा 'अकृतागम' नामक दोष अर्थात् जो शुभाशुभ कर्म अभी तक आत्मा द्वारा किया नहीं गया है, उसकी फलप्राप्ति होती है। अनित्य प्रात्मवाद
नित्य आत्मवाद का विरोधी सिद्धान्त अनित्य आत्मवाद है। अनित्य आत्मवाद के समर्थक-चार्वाक और बौद्ध-दर्शन हैं। दार्शनिक-जगत् में