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आनन्दधन का रहस्यवाद सच यह है कि बौद्ध-मत में आत्मा की नित्यता एक क्षण की मानी गई है और क्षण इतना सूक्ष्म होता है कि जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता। सर्वदर्शन-संग्रह में, क्षण से मतलब "ऐसा कालांश जिससे सूक्ष्मतम कालांश है। निमेष तक तो हम अनुभव कर सकते हैं किन्तु क्षण का नहीं।"' ऐसी स्थिति में एक क्षण में बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, सुखदुःख, जन्म-मरण आदि की प्रक्रियाएँ आत्मा में घटित नहीं हो सकतीं।
(२) यदि आत्मा को क्षण-क्षण में बदलता हुआ माना जाय तब तो व्यक्ति को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता यह है कि वह सुख-दुःख का अनुभव करता है। स्वयं बुद्ध ने अनेक वर्षों तक साधना की और उसमें होनेवाले सुख-दुःख का अनुभव किया । यदि बुद्ध को सुख-दुःख की अनुभूति हुई ऐसा मान लिया जाय तब तो अनित्य आत्मवाद या क्षणिकवाद की नींव डगमगा जाएगी। ____ जब आत्मा एक ही क्षण स्थिर रहती है तो शुभाशुभ अध्यवसाय पूर्वक की गई क्रियायों का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। फिर भी, बौद्धदर्शन में चार आर्य सत्य, अष्टांगमार्ग आदि मोक्ष-मार्ग के साधन के रूप में प्रतिपादित हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि कर्म बाँधनेवाला आत्मा तो क्षण भर में नष्ट हो गया और कर्म से छुटकारा पाने के लिए जो प्रयत्न अगले क्षण में उत्पन्न होनेवाले आत्मा ने किया वह प्रयत्न करनेवाला आत्मा भी नष्ट हो गया, तब कर्मों से मुक्ति किस आत्मा की होगी ? पुण्य या पाप कर्म करनेवाला आत्मा जब क्षण भर में नष्ट हो गया तब फिर शुभाशुभ सुख-दुःख रूप कर्मफल कौन भोगेगा ? ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध ने ४९ दिन तक समाधि-सुख का आनन्द लिया किन्तु आत्मा के क्षणिक मानने पर यह बात असंगत प्रतीत होती है, क्योंकि ४९ दिनों में तो कई आत्माएँ बदल चुकी होंगी। इसी तरह भगवान् बुद्ध ने एक बार पैर में काँटा बिंध जाने पर अपने शिष्यों से कहा-'भिक्षुओं! इस जन्म से एकानवे जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष) से एक पुरुष की हत्या हुई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर काँटे से बिंध गया है। उत्तराध्ययन
१. सर्वदर्शन-संग्रह, पृ० १०८ । २. इत एक नवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषोहतः । तेन कर्म विपाकेन, पादे बिद्धोस्मि भिक्षवः ॥
-षड्दर्शन समुच्चय, टीका।