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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
भोक्तृत्व
आत्मा के भोक्तृत्व स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आनन्दघन कहते हैं :
सुख-दुःख रूप करम फल जानो, निश्चय एक आनन्दो रे । चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिनचन्दो रे । '
उपर्युक्त पंक्तियों में आत्मा के भोक्ता पक्ष को उजागर करते हुए वे कहते हैं कि जहां आत्मा कर्मों का कर्ता है, वहां वह कर्म फलों का भोक्ता भी है । कर्म फल के दो रूप हैं - सुख रूप और दुःख रूप । आत्मा के अनुकूल संवेदनाएँ (अनुभव) होना सुख रूप कर्म फल है और आत्मा के प्रतिकूल संवेदनाएँ होना दुःख रूप कर्म फल । वास्तव में निश्चय नय की दृष्टि से तो शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख-रूप प्रतिफल का संवेदन आत्मा के स्व-स्वभाव से भिन्न है, क्योंकि सुख और दुःख पुद्गल पर्याय की अवस्थाएँ हैं । आत्मा तो केवल उनका साक्षी है, वह तो मात्र दर्शक है । यद्यपि निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा कर्म का कर्ता एवं भोक्ता नहीं है, तथापि व्यवहार नय की अपेक्षा से वह शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और उनके सुख-दुःख-रूप फल का भोक्ता भी है। लेकिन कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही देहधारी बद्धात्मा में घटित होते हैं, न कि मुक्तात्मा में । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा ही सुख और दुःख का कर्ता एवं भोक्ता है ।
१.
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा को पुद्गल, कर्मों का कर्ता और अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से चैतसिक भावों का
२.
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आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन ।
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाणं य सुहाणं य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्टिओ ॥
- उत्तराध्ययन, २०१३७ ।
३. ववहारस्स दु आदो पुग्गल कम्भं करे दि णेय विहं ।
तं चवे पुणो वेयइ पुग्गल कम्मं अणेय विहं ॥
- समयसार, कर्तृकर्माधिकार, गाथा ८४ ।