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आनन्दधन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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ज्ञान चेतना शुद्धज्ञान स्वभाव रूप परिणमन करती है, कर्म चेतना रागादि कार्यरूप में परिणमन करती है और कर्मफल चेतना सुख-दुःखादि भोगने रूप परिणमन करती है। इनमें ज्ञान-चेतना शुद्ध और भूतार्थ है, क्योंकि वह अपने ज्ञानादि गुणों में परिणमन करती है। ज्ञान के अतिरिक्त अन्य भाव में रमण करना-इसे मैं करता हूँ --कर्म चेतना है और ज्ञान के सिवाय अन्य में यह चिन्तन करना- 'मैं भोगता हूँ' यह कर्मफल चेतना है। ये दोनों चेतनाएँ 'पर' के निमित्त होती हैं। इनमें आत्मा रागादि परिणामवाली हो जाती है। अतः ये दोनों देहाश्रित बद्धात्मा से सम्बद्ध हैं। इसी कारण इन्हें अभूतार्थ, अशुद्ध और अज्ञान चेतनाएँ कहा गया है।
आधुनिक मनोविज्ञान में भी चेतना के तीन रूप माने गये हैं१. Knowing (जानना), २. Feeling (अनुभव करना) और
३. Willing (इच्छा करना) । दूसरे शब्दों में, ज्ञान, अनुभव तथा संकल्प ये तीनों चेतना के तीन पहलू
आनन्दधन द्वारा कथित उक्त त्रिविध चेतना की तुलना आधुनिक मनोविज्ञान के इन तीन रूपों से की जा सकती है। ज्ञान-चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना को क्रमशः मनोविज्ञान की भाषा में ज्ञान, संकल्प और अनुभव कहा जा सकता है। ज्ञान चेतना ज्ञाता भाव है, कर्म चेतना कर्ता भाव और कर्मफल चेतना भोक्ता भाव है। इनमें से ज्ञान चेतना और कर्मफल चेतना बन्धनकारक नहीं है। बन्धनकारक है केवल कर्म चेतना अर्थात् बन्धन कर्म चेतना को ही होता है, जैसा कि समयसार नाटक में बनारसीदास ने भी कहा है।' ज्ञान चेतना मुक्ति बीज है और कर्म-चेतना संसार का बीज।
१. ज्ञान जीव की सजगता, कर्म जीव कू भूल ।
ज्ञान मोक्ष को अंकुर है, कम जगत् को मूल ॥ ज्ञान चेतना के जगे, प्रगटे आतम राम । कर्म चेतना में बसे. कर्म-बन्ध परिणाम ।।
-समयसार-नाटक, अ० १०, ८५-८६ । १२