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आनन्दघन का रहस्यवाद चौपड़ चार पट्टी और ८४ खाने की होती है। तीन चौकोर पासों से वह खेली जाती है । चौपड़ खेलने के लिए नीली (हरी), काली (स्याह), लाल और पीली (जरद) चार रंगों की १६ सारें होती हैं। प्रत्येक पासे में पाँच :-: के नीचे की ओर दो : का चिह्न और छह :: : के नीचे की ओर एक . का चिह्न होता है। जिस तरह के चिह्न के पासे ऊपर की ओर होते हैं, तदनुसार सार चलती है। सार (गोटी) का जब तक तोड़ नहीं होता अर्थात् वह दूसरी सार मार कर हटा नहीं देती तब तक वह अपने घर में नहीं जा सकती। चौपड़ के ८४ खानों में नीली सार, काली सार से अपनी जोड़ी न तोड़कर फिरती रहती है, लेकिन लाल और पीली सार कभी-कभी अपनी जोड़ी तोड़ कर निज घर में आ जाती है। इसी तरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी ८४ लक्ष योनि रूप ८४ घर-उत्पत्ति-स्थान होते हैं। इन ८४ खानों में परिभ्रमण करने वाली कृष्ण, नील, कापोत
और तेजो लेश्या रूप चार वर्णों की आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसाय रूप सारें होती हैं। यद्यपि जैन दर्शन में षट्लेश्या'-मानी गई हैं, इनमें प्रथम को तीन लेश्या शुभ और अन्तिम तीन अशुभ कही गई है, फिर भी आनन्दघन ने चतुर्गति रूप चौपड़ की दृष्टि से यहाँ ४ लेश्याओं का ही संकेत किया है। कृष्ण और नील लेश्या के परिणाम वाले जीव ८४ लक्ष-योनि में घूमते रहते हैं। कृष्ण-नील की जोड़ी साधारणतया सदैव रहती है। किन्तु कपोत और तेजोलेश्या के परिणाम वाले जीव, सम्यक्त्वसुबुद्धि के योग से कभी-कभी जोड़ी का नाश कर अपने मोक्ष रूपी घर में आ सकते हैं। ऊपर चौपड़ के खेल में यह भी बताया गया है कि प्रत्येक पासे के ऊपर की ओर पंजा और नीचे दुआ का चिह्न रहता है तथा पासे के ऊपर की ओर छक्का और नीचे की ओर एक का चिह्न रहता है। पाँच और दो तथा छह और एक-इन सबको मिलाने पर कुल चौदह होते हैं। उक्त चौदह की संख्या जैनदर्शन में मान्य आत्म-विकास के चतुर्दश सोपान (गुण स्थान) की ओर संकेत करती है। दूसरी दृष्टि से इन संख्याओं को रूपक के आधार पर भी समझा जा सकता है। पाँच इन्द्रिय, पाँच अव्रत अथवा पाँच आस्रव रूप पंजे को जिस साधक ने जीत लिया है, वह राग-द्वेष रूप दुआ को भी जीत लेता है और पंजे–दुए को जीत लेने पर वह षट्लेश्या अथवा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और
१. कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल ।