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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
१५५ जैनाचार्यों में सर्वप्रथम सिद्धसेन ने "जैनेतर सम्पूर्ण दृष्टियों को अनेकान्त-दृष्टि के अंशमात्र बता कर' मिथ्यादर्शनों के समूह को जैनदर्शन बताते हुए अपनी सर्व समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय दिया।" ___ वास्तव में ५वीं-६ठीं शताब्दी के जैनाचार्यों से लेकर परवर्ती विचारकों, सन्त कवियों की विवेचना-पद्धति में समन्वय-सूत्र खोजे जा सकते हैं। सन्त आनन्दघन ने भी सिद्धसेन आदि पूर्ववर्ती जैनाचायौँ की भाँति ही सब दर्शनों के प्रति एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । इस सम्बन्ध में उनका निम्नांकित पद द्रष्टव्य है :
जिनवर मां सघला दर्शन छे, दर्शन जिनवर भजना रे।
सागर मां सघली तटिनी सही, तटिनी सागर भजना रे ॥ समन्वयवादी विरोध में भी अविरोध खोजता है। यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि सत्रहवीं शती में (साम्प्रदायिक युग में) आनन्दघन जैसे आध्यात्मिक सन्त ने 'लोकायतिक कूरव जिनवरनी' कहकर चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन को भी जिनेन्द्रदेव की कुक्षि के एक अंग के रूप में स्थापित कर दार्शनिक-जगत् को समन्वय की शक्ति से परिचित करा दिया। सामान्यतः कोई भी विचारक या दार्शनिक भौतिकवादी चार्वाक दर्शन को समय-पुरुष के एक अंग के रूप में प्रस्थापित करने की कल्पना भी नहीं कर सकता। किन्तु आनन्दघन ने बिना किसी पक्षपात के उसे भी यथायोग्य स्थान दिया। उनके अनुसार किसी भी दर्शन के प्रति उपेक्षा या अनादर बुद्धि नहीं होनी चाहिये। इस सम्बन्ध में उनका स्पष्ट उद्घोष है कि षट्दर्शन रूप अंगों को नमिजिन के अंगों (अवयवों) पर स्थापित करके जो साधक साधना करते हैं, वे नमिजिन परमात्मा के चरणउपासक षट्दर्शनों की समानरूप से आराधना करते हैं : १. उद्धाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः ।।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥
-आचार्य सिद्धसेन विरचित द्वात्रिंशिका द्वात्रिंशिका ४-१५ । २. भई मिच्छा दंसण समूह भद्दयय अभयसारस्स । जिण वयणस्स भगवओ संविग्ग सुहादिमग्गस्स ।।
-सन्मति तर्क, ३-३५ । ३. स्याद्वाद मंजरी से उद्धृत, पृ० २७ । ४. आनन्दघन ग्रन्थावली, नमिजिन स्तवन ।