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आनन्दघन का रहस्यवाद निरुपाधिक समाधि अथवा एकाग्रता-स्थिरता नहीं प्राप्त हो सकती। इससे स्पष्ट होता है कि मन की शान्ति (समाधि) के लिए या निरुपाधिक चित्तदशा प्राप्त करने के लिए ही उन्होंने आनन-विजाना की।
आत्मतत्त्व की जिज्ञासा का एक कारण यह भी है कि आत्मवाद की मूल भित्ति पर ही वन्ध-मोक्ष, पाप-पुण्य, लोक-परलोक आदि की भव्य इमारत खड़ी हुई है। इसके अभाव में व्यक्ति न तो लोकवादी हो सकता है, न कर्मवादी और न क्रियावादी। यदि आत्मतत्त्व को ही न माना जाय तो लोक-परलोक, कर्म-क्रिया आदि किस पर घटित होंगे? इसीलिए आचारांग में कहा गया है “से आयावादी लोगावादी कम्मावादी किरियावादी"-अर्थात् जिसे आत्मा का सम्यक् परिज्ञान हो गया है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आनन्दधन द्वारा सर्वप्रथम आत्मतत्त्व की जिज्ञासा प्रस्तुत करना स्वाभाविक है।
आनन्दधन की आत्म-जिज्ञासा का दूसरा कारण यह भी है कि आत्मबोध के अभाव में व्रत-नियम, साधनाएँ, धर्मक्रियाएँ निष्फल सिद्ध होती हैं, क्योंकि आत्म-बोध के बिना क्रियाएँ गतानुगतिक या लकीर की फकीर बनकर अथवा अंधविश्वासपूर्वक की जाती हैं। अतः ऐसी क्रियाएँ मात्र भव-भ्रमण करानेवाली ही होती हैं न कि मुक्तिदायिनी। इस सम्बन्ध में आनन्दघन का कथन है कि आत्म-ज्ञान सहित की गई क्रियाएँ ही मुक्तिदायिनी होती हैं। यद्यपि व्यक्ति अनेकविध क्रियाओं द्वारा परमात्मा की सेवा-भक्ति करना चाहता है, किन्तु जिन क्रियाओं के करने से मोक्ष नहीं मिलता, ऐसी क्रियाओं के करने से चतुर्गतिल्प संसार में ही परिभ्रमण करना पड़ता है। आत्मस्वरूपानुलक्षी क्रिया ही भवभ्रमण का अन्त कर ‘सकती है। इसीलिए उनकी यह धारणा है कि कोई भी साधना आत्मस्वरूप का बोध हो जाने के बाद ही सार्थक होती है। किसी भी साधना का सार्थक प्रतिफल मोक्ष है। इस दृष्टि से उनके द्वारा आत्म-तत्त्व की जिज्ञासा प्रस्तुत करना तर्कसंगत है।
१. आचारांग, ११११ २. एक कहे सेविये विविध करिया करी, फल अनेकांत लोचन देखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा रडषड़े चारगति मांहि लेखे ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, अनन्तजिन स्तवन ।