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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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(१) आत्म-प्रत्यक्ष, और
(२) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । मूल प्रश्न यह है कि आत्मा का अनुभव अथवा आत्म-अनुभव-ज्ञान कैसे प्राप्त हो ? इस सम्बन्ध में आनन्दघन' का स्पष्ट कथन है कि आत्मानुभव न तर्क से होता है, न दार्शनिक विवादों (षड्दर्शन के वाग्विलास) में उलझने से और न ऐन्द्रिक अनुभव से होता है। इस आत्म-तत्त्व का अनुभव केवल अनुभव-ज्ञान से हो हो सकता है। आत्मानुभव के क्षेत्र में षड्दर्शन के बागी-बिलान अथवा षड्दर्शन के तर्क-वितर्क के भिन्न-भिन्न कथनों की गहनता की थाह पाना बड़ा कठिन है। एक श्वास रूपी चोले पर (शरीर पर) आधारित व्यक्ति षड्दर्शन रूपी पत्थरों का भार कैसे उठा सकता है ? वस्तुतः आत्मानुभव के क्षेत्र में षड्दर्शनों का तर्क-वितर्क बाधक ही है। इतना ही नहीं, प्रत्युत आत्मानुभव-ज्ञान और षड्दर्शनों के ज्ञान की तुलना करते हुए आनन्दघन कहते हैं कि कहां भ्रमर के पैरों के समान षड्दर्शन का ज्ञान और कहां गजपद (हाथी के पैरों) के समान आत्मानुभव का ज्ञान । आत्मानुभव ज्ञानरूप हाथी से षड्दर्शन रूप भ्रमर की तुलना कैसे की जा सकती है ?३ उनके कहने का मूल मन्तव्य यह है कि षड्दर्शन का ज्ञान अथवा षड्दर्शन का वाग्विलास तो भ्रमर के लघु पैरों की भांति ससीम है और आत्मानुभव का ज्ञान विशालकाय हाथी की भाँति असीम है। अतः असीम की ससीम से जानकारी होना असम्भव है । षड्दर्शनों का विशाल-गहन ज्ञान हो जाने. पर भी आत्मानमति नहीं हो सकती । इसी तरह आनन्दघन ने तर्क-विचार (वाद-प्रतिवाद की परम्परा) द्वारा भी शुद्धात्म-तत्त्व (परमात्म-तत्त्व) के पथ को प्राप्त करना असम्भव बताया है। उनका कथन है : १. अनुभव गोचर वस्तु कोरे, जाणिए इह इलाज ।
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६१ । २. वही, पद ६१ । ३. वागवाद षटवाद सहु मैं, किसके किस के बोला।
पाहण को भार कहा उठावत, इक तारे का चोला॥ षटपद पद के जोग सिरीष सहै वयु करि गजपद तोला । आनन्दघन प्रभु आइ मिलो तुम्ह, मिटि जाइ मन का झोला ॥
-वही, पद ५५ ।