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आनन्दघन का रहस्यवाद
षड्दरसण जिन अंग भणीजै, न्यास षडंग जो साधै रे । नमि जिनवर ना चरण उपासक, षड दरसण आराधै रे ।। ' यह सच है कि सभी दर्शनों की समान भाव से आराधना करनेवाला साधक ही परमात्मा के चरणों का सच्चा उपासक हो सकता है, अतः उसकी बुद्धि अनेकान्तिक होती है । इसी बात को उनके समकालीन उपाध्याय यशो - विजय ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है - " सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नय रूप दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है, क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समभाव रखता है । वास्तव में माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है । माध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं । २” “निःसन्देह सच्चा स्यादवादी सहिष्णु होता है, वह राग-द्वेषरूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत् प्रयत्न करता है। वह दूसरों के सिद्धान्तों को आदर की दृष्टि से देखता है और मध्यस्थ भाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय करता है । "
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इस प्रकार, जैनदर्शन की दृष्टि समन्वयात्मक एवं पूर्ण है । जैन परम्परानुसार आनन्दघन ने भी छहों दर्शनों को निष्पक्षतापूर्वक समय-पुरुष के षड् अंग के रूप में कल्पित किया है । उनके अनुसार मुख्यरूप से षट्दर्शन निम्नलिखित हैं : - (१) सांख्य, (२) योग, (३) मीमांसक, (४) बौद्ध, (५) लोकायतिक ( चार्वाक) और (६) जैन । ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायवैशेषिक दर्शन को उन्होंने सांख्य और योग में अथवा योगदर्शन को सांख्य दर्शन में गिनकर योग अर्थात् नैयायिक ऐसा भी अर्थ टब्बा में किया है। भारतीय विचारधारा में सुप्रसिद्ध षट्दर्शनों की अवधारणा इस प्रकार है :
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, नमिजिन स्तवन ।
२.
अध्यात्मसार, ६१-७०-७३, उद्धृत स्याद्वाद मंजरी, पृ० ३१ ३२ ।
३. स्याद्वाद मंजरी, पृ० ३२ से उद्धृत |
४. श्रीआनन्दघन चौबीनी- प्रमोदायुक्त नम्पा० प्रभुदास बेचरदास पारेख, पृ० ३५९ ।