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आनन्दघन का रहस्यवाद परमात्मा के इन विभिन्न नामों के गूढ़-रहस्यार्थ को तन्त्र-गंवेदनमान अर्थात् अनुभवज्ञान द्वारा ही जाना जा सकता है । अन्यथा एक ही परमात्मा के विविध नामों के कारण भ्रान्ति होने की सम्भावना है। वास्तव में, आनन्दघन ने परमात्मा के लोकप्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय-दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है। जैनाचार्यों ने परमात्मा के विविध नामों के सम्बन्ध में समन्वयदृष्टि ही प्रस्तुत की है। परमात्मा, बुद्ध, जिन, हृषीकेश, शंभु, ब्रह्मा, आदि पुरुष आदि पृथक्-पृथक् नाम एक ही अर्थ के वाचक हैं।
जहां आनन्दघन ने परमतत्त्व के सम्बन्ध में व्यापक एवं समन्वयशीलता का परिचय दिया है, वहीं दार्शनिक क्षेत्र में भी उनका दृष्टिकोण समन्वयवादी रहा है। वे दर्शन के क्षेत्र में भी एकान्त दृष्टि को असमीचीन समझते हैं। इसका स्पष्ट प्रमाण मुनि सुव्रत जिन-स्तवन है, जिसमें उन्होंने एकान्तवादियों के आत्मतत्त्व सम्बन्धी विचार को प्रस्तुत कर उनके दोषों की
ओर भी संकेत किया। वस्तुतः उनके समय में भी दार्शनिक क्षेत्र में वादविवाद हुआ करता था। कोई आत्मा को नित्य मानता था तो कोई अनित्य । किन्तु कोई भी विचारक या दार्शनिक आत्मवाद सम्बन्धी मान्यता को समन्वयात्मक ढंग से प्रतिपादित नहीं कर रहा था। बल्कि सभी अपने-अपने पक्ष को लेकर एकान्तवाद के आग्रह से बद्ध थे। ऐसी स्थिति में सन्त आनन्दघन ने परस्पर सद्भाव स्थापित करने के लिए पूर्व जैनाचार्यों के समान समन्वयात्मक दृष्टि द्वारा सभी दर्शनों को यथायोग्य स्थान दिया। उनके अनुसार वस्तुतः सभी दर्शन सापेक्षिक सत्य हैं। कोई भी दर्शन सर्वथा सत्य अथवा असत्य नहीं है। पूर्ण सत्य में सब दर्शनों का समन्वय होना चाहिए।
परम पुरुष परमातमा, परमेसर परधान । ललना । परम पदारथ परमेष्ठी, परमदेव परमान ॥ ललना ॥ ६ ॥ बिधि बिरंचि विश्वंभस्त, ऋषीकेश जगनाथ ॥ ल० ॥ अघहर अघमोचन धणी, मुगति परमपद साथ ॥ ल० ॥७॥ इम अनेक अभिधा घरै, अनुभवगम्य बिचार ॥ ल० ॥ जे जाणै तेहन करै, आनंदघन अवतार ॥ ल० ॥ ८॥ -आनन्दघन ग्रन्थावली, श्रीसुपार्व जिन स्तवन ।