________________
आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
अशुद्ध निश्चय नय ।' सन्मतिटीका में भी निश्चय और व्यवहार के सम्बन्ध में निर्देश है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन निश्चयदृष्टियाँ हैं और ऋजुसूत्र, शब्द, समाभिरूढ़ तथा एवंभूत ये चार व्यवहार दृष्टियाँ हैं । इन दोनों दृष्टियों का उल्लेख प्रकारान्तर से 'भगवतीसूत्र' में भी है।
उपर्युक्त नयों के वर्गीकरण की विवेचना जैनाचार्यों ने दो दृष्टि से की है-एक शास्त्रीय दृष्टि से और दूसरी आध्यात्मिक दृष्टि से। सप्तविध नयों का वर्गीकरण तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का निरूपण शास्त्रीय दृष्टि के अन्तर्गत आता है और निश्चय एवं व्यवहार नय की विवेचना आध्यात्मिक दृष्टि के अन्तर्गत् । नयों के उपर्युक्त सभी प्रकारों में से हम केवल यहाँ निश्चय और व्यवहार इन दो मूल नयों की ही चर्चा करेंगे क्योंकि सन्त आनन्दघन ने मात्र निश्चय और व्यवहार नय तथा द्रव्य-दृष्टि और पर्याय-दृष्टि के आधार पर ही अपनी विवेचनाएँ की हैं। "इसके अतिरिक्त निश्चय और व्यवहार नय एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें अन्य सभी नयों का वर्गीकरण अन्तनिहित है। निश्चय और व्यवहार नय में सभी नयों का अन्तर्भाव है।"४ जैनागम भगवतीसूत्र में भी निश्चय
और व्यवहार नय का उल्लेख है। भगवान् महावीर ने गौतम गणधर द्वारा पूछे गए अनेक प्रश्नों का निराकरण इसी नय-द्वय की शैली में किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में भी निश्चय-व्यवहार नय की सूक्ष्म विवेचना है।
१. दोय मूल नय भाषीयाजीरे, निश्चय ने व्यवहार । निश्चय द्विविध कहयुरे, शुद्ध अशुद्ध प्रकार रे ॥
प्राणी परखो आगम भाव ।।।
-द्रव्यगुण पर्याय नो रास, ढाल तेरहवीं, गा० १। २. शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य, संग्रह स्तदशुद्धितः । नैगम व्यवहारौ स्तः, शेषाः पर्यायमाश्रिताः ॥
-सन्मति टीका, २७२। ३. भगवतीसूत्र, १८१६
कोश, खण्ड ४, पृ० १८८३ । ५. भगवतीसूत्र, १८१६।४४-४६ ।